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श्रीपालचरितम्
॥१०२॥
हारस्स पभावेणं, संपत्तो तत्थ खुज्जरूवेणं । पिच्छेइ रायचक्रं, उवविढे उच्चमंचेसु ॥ ८१३ ॥ दभाषाटीका। अर्थ-तदनंतर कुमर हारके प्रभावसे उस नगरके पासवर्ति स्वयंवर मंडपमें कुब्जरूप करके पहुंचा ऊंचे सिंहासनों सहितम्पर बैठे हुए राज समूहको देखे ॥ ८१३ ॥ कुमरोवि खुजरूवो, सयंवरामंडवंमि, पविसंतो। पडिहारेण निसिद्धो, देई तओ तस्स करकडयं ८१४ | अर्थ-कुमरभी कूबड़ेके रूपवाला स्वयंवर मंडपमें प्रवेश करताथा तब द्वारपालने मना किया तदनंतर उस द्वार पालको कडा दिया और अंदर प्रवेश किया ॥ ८१४ ॥ पत्तो य मूलमंडवथंभट्टियपुत्तलीण पासंमि । चिट्रेड सुहं निसन्नो, कमरो कयकित्तिमकरूवो ॥८१५॥ ___ अर्थ-और मूल मंडपके थंभोमें रही भई पूतलियोंके पासमें जाके सुखसे बैठा कैसा है कुमर किया है कृत्रिम कुरूप जिसने ॥ ८१५॥ तं उच्चपिट्टिदेसं, संकुडियउरं च चिविडनासउडं । रासहदंतं तह उट्टहट्टयं, कविलकेससिरं ॥ ८१६ ॥ । अर्थ-अब विशेष करके कृत्रिम रूपका वर्णन करते हैं उस कूबड़ेको देखके यहां सम्बन्ध है कैसा है कूबड़ा उंचा है पीछेका भाग जिसका और संकुचित हृदय जिसका चीपडी नासिका गधेके जैसा दांत जिसका ऊंटके जैसा होठ जिसका ॥१०२॥ पीला केश मस्तकमें जिसके ॥ ८१६ ॥
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