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श्रीपालचरितम् ॥१०३॥
***SESSORIAUSICA
अर्थ-और हाथमें निर्मल वरमाला है जिसके ऐसी जितने मूलमंडपमें आई उतने अकस्मातही शीघ्र कुमरका भाषाटीकास्वाभाविक मूलरूप देखे ॥ ८२१ ॥
सहितम्. तं दट्टण पमुइयचित्ता, चिंतेइ सा निवइधूया।रे मण ! आनंदेणं, वहसु एयस्स लाभेणं (लंभेणं) ८२२/8 ___ अर्थ-तब राजकन्या स्वाभाविक सुंदररूप है जिसका ऐसे श्रीपालकुमरको देखके हर्पित चित्त जिसका ऐसी विचारे | रे मन तें इस वरके लाभसे आनंदमें वर्त अर्थात् आनंद युक्त रह ॥ ८२२॥
धन्ना कयपुन्नाऽहं, महंतभागोदओऽवि मह अत्थि। मह मणजलनिहिचंदो,जं एस समागओ कोऽवि८२३ | अर्थ-मैं धन्य हूं और किया है पुण्य जिसने ऐसी कृतपुण्य हूं मेरा भाग्योदयभी बड़ा है जिस कारणसे मेरा मन रूप समुद्रको उल्लास करनेमें चन्द्रसदृश यह कोई पुरुष आया है ॥ ८२३ ॥ कुमरोवि तीइ दिदि, दहणं साणुराग सकडक्खं । दंसेइ खुज्झयंपि ह अप्पाणं अंतरंतरियं ॥८२४॥ ___ अर्थ-कुमरभी उस कन्याकी दृष्टि अनुराग सहित और कटाक्षयुक्त देखके बीचबीचमें अपना कूबड़ेका रूप दिखावे २४|8 इत्तोवि ह पडिहारी, जंजं वन्नेइ नरवरं तं तं । विक्खोडेइ कुमारी, रूववओदेसदोसेहिं ॥ ८२५॥ । अर्थ-इधरसे प्रतिहारीणि स्त्री जिस २ राजाका वर्णन करे उस २ राजाको कुमरी रूप, उमर, देशके दोषोंसे ||॥१० दूषितकरे इस राजाका रूप ठीक नहीं है इस राजाकी वय ठीक नहीं है इसका देश रमणीय नहीं है इत्यादि ॥ ८२५ ॥ 11
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