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श्रीपाल - चरितम्
॥ ९० ॥
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पाणो भणेइ सामिय, सवत्थाहं लहेमि बहुदाणं । किं तु न लहेमि माणं, ता तं मह देसु जइ तुट्ठो ७१० अर्थ-तब डोंम कहे हे स्वामिन् मैं सर्वत्र बहुत दान पाताहं किंतु मान सत्कार कहांभी नहीं मिले है इस लिए हे महाराज जो आप संतुष्टमान भए हो तो मेरेको मान देवो ॥ ७१० ॥
राया भणेइ माणं, जस्साहं देमि तस्स तंबोलं । दावेमिमिणा जामाउएण, पाणप्पिएणावि ॥७११॥
अर्थ - राजा कहे है जिसको मैं मान देउ हूं उसको यह प्राणोंसे भी प्यारा जमाईके हाथसे तांबूल दिलाता हूं ॥७११॥ डुंबो सकुटंबोऽवि हु, पभणइ सामिय ! महापसाउत्ति । तो रायाएसेणं, कुमरो जा देई तंबोलं ७१२
अर्थ-तब कुटुंबसहित डोंम राजाको नमस्कार करके बोला हे महाराज हमारेपर महाप्रसाद याने वेसी प्रसन्नता करो तब राजाकी आज्ञासे कुमर श्रीपाल जितने तांबूल देवे ॥ ७१२ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
ताव सहसति एगा, बुड्डी डुंबी कुमारकंठंमि । लगेइ धाविऊण, पुत्तय पुत्तय कओ तंसि ॥ ७१३ ॥
अर्थ - उतने अकस्मात् तत्काल एक बूढी डोंमनी दौड़के कुमरके कंठमें लगी हे पुत्र हे पुत्र तैं यहां कहां से है। कहां से आया है ऐसा वचन बोलती ।। ७१३ ॥
॥ ९० ॥
| कंठ विलग्गा पभणइ, हा वच्छय कित्तियाउ कालाओ । मिलिओऽसि तुमं अम्हं, कत्थ य भमिओसि देसंमि