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श्रीपालचरितम् ॥७८ ॥
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तत्तो सो गयनिहो, सयणीयगओवि मज्झरयणीए । दुक्खेण टलवलंतो, दि हो तम्मित्तपुरिसेहिं॥६०८॥ भाषाटीका__अर्थ-तदनंतर वह धवलसेठ गई निद्रा जिसकी ऐसा आधीरात्रिके समय शय्यापर लुठता हुआ मित्रोंने देखा ६०८||सहितम्. पुटो य तेहिं को अज, तुज्झ अंगंमि वाहए वाही । जेण न लहेसि निदं, तो कहसु फुडं नियं दुक्खं ६०९/ __ अर्थ-और उन मित्रोंने पूछा अहो सेठ आज तुह्मारे शरीरमें क्या रोग पीड़ा उत्पन्न करे है जिससे तुमको निद्रा 8 नहीं आवे हैं इसलिए प्रगट तुम आपना दुःख कहो ॥ ६०९॥ कह कहवि सोवि दीहं, नीससिऊणं कहेइ मह अंगं । वाही न बाहए किंतु, बाहए मं दुरंताही ॥६१०॥ 1 अर्थ-वाद धवलसेठभी दीर्घ निश्वासा डालके बड़े कष्टसे कोई प्रकारसे बोला मेरे शरीरमें व्याधि नहीं है किंतु मेरेको आधिनाम मानसिक दुःख पीड़ा करता है ॥ ६१०॥ पुढो पुणोवि तेहिं, का सा तुह माणसीमहापीडा?। तो सो कहेइ सवं, तं निययं चितियं दु;॥६११॥ । अर्थ-तव उनमित्रोंने औरभी पूछा तुम्हारे मनमें क्या दुःख है तव धवलसेठने अपना सब दुष्ट विचार मित्रोंको 5 सुनाया ॥ ६११॥
तं निसुणिऊणतेवि ह, भणंति चउरोवि मित्तवाणियगा। हहहा किमियं तुमए, भणियं कन्नाण सूलसमं ॥ ६१२ ॥
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