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श्रीपालचरितम्
॥२३॥
SSESASARAMBASSAMAKAX
सूरूव हरियतमतिमिरदेव, देवासुरखेयरविहियसेव ।
भाषाटीकासेवागयगयमयरायपाय, पायडियपणामह कयपसाव ॥ ७५॥
| सहितम्. अर्थ-और सूर्यके जैसा दूर किया है अज्ञानरूप अंधकार जिसने और वैमानिकादि देव भवनपत्यादि असुर और विद्याधर उन्होंने करी है सेवा जिसकी ऐसा हे देव! सेवाके वास्ते आया और गया है मद जिन्होंका ऐसे जो राजा है लोग उन्हों करके नमस्कार किया है चरणों में जिन्होंके ऐसा हे सेवा०? और किया है प्रसाद जिसने हे कृतप्रसाद! ॥७५॥
सायरसमसमयामयनिवास, वासवगुरुगोयरगुणविकास।
कासुजलसंजमसीललील, लीलाइ विहियमोहावहील ॥ ७६ ॥ अर्थ-समुद्रके तुल्य समता अमृतके निवास इन्द्र गुरु लोकोक्तिसे बृहस्पतिः उसके विषयभूत है गुणोंका विस्तार जिन्होंका उसका सम्बोधन हे वासव० इत्यादि और कास तृणविशेष उसके सदृश संयम शील चारित्र स्वभावकी लीला जिसके ऐसा और लीलामात्रसे किया है मोहनीय कर्मका अनादर जिन्होंने ऐसे ॥ ७६॥
हीलापरजंतुसुअकयसाव, सावयजणजणियाणंदभाव। भावलयअलंकिय रिसहनाह, नाहत्तणु करि हरि दुक्खदाह ॥ ७७॥
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