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श्रीपा.च. ६.
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अर्थ - इस तपके करनेवाले मनुष्यके दासपना न याने होवे नौकर न होवे कलाहीनपना, दुरभाग्यपना और अनिष्ट - | पना आंधा काणापना शरीर दूषितपना और जातिकुलादि दूषितपना यह इसलोकमें परलोकमें नहीं होवे है ॥ २२३ ॥ नारीणवि दोहग्गं, विसकन्नत्तं कुरंडरंडत्तं । वंझत्तं मयवच्छत्तणं च न हवेइ कइयावि ॥ २२४ ॥
अर्थ - स्त्रियोंके भी यह दोष कभी नहीं होवे कौनसे दोष सो कहते हैं दुर्भागनीपना भर्तारके अनिष्ट और विष कन्या तथा कुलक्षण स्त्रीपना तथा विधवापना तथा वंध्यापना तथा मृतवत्सापना यह दोष न होवे ॥ २२४ ॥ | किं बहुणा जीवाणं, एयस्स पसायओ सयाकालं । मणवंछियत्थसिद्धी, हवेइ नत्थित्थ संदेहो ॥ २२५ ॥
अर्थ — ज्यादा कहने करके क्या जीवोंके इस सिद्धचक्र के प्रसादसे सर्व कालमें मनोवांछित अर्थकी सिद्धि होवे है इसमें संशय नहीं है ॥ २२५ ॥
एवं तेसिं सिरि सिद्धचक्क, माहप्पमुत्तमं कहिउं । सावयसमुदायस्सवि, गुरुणो एवं उवइति ॥ २२६ ॥
अर्थ - इस प्रकार से श्रीपाल मदनसुंदरीके आगे उत्तम प्रधान श्रीसिद्धचक्रका माहात्म्य कहके श्रावक समुदाय | श्रद्धालु संघको भी गुरुः वक्षमाण प्रकारसे उपदेश देवे ॥ २२६ ॥
एएहिं उत्तमेहिं, लक्खिज्जइ लक्खणेहिं एस नरो । जिणसासणस्स नूणं, अचिरेण पभावगो होही २२७
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