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श्रीपाल- अर्थ-हे पुत्री जिसने मेरे कुलका उद्धार किया और जिसने अपनी माताका उद्धार किया और जिनधर्मका उद्धार भाषाटीकाचरितम् किया अर्थात् जिनधर्मको शोभा प्राप्त किया ऐसी एक तें ही धन्य है ॥ ३२५ ॥
सहितम्. ॥४३॥
अन्नाणतमंधेणं, दुद्धरहंकारगयविवेगेणं । जो अवराहो तइया, कओ मए तं खमसु वच्छे ॥ ३२६ ॥ ___ अर्थ-अज्ञान ही अंधकार उससे आंधा उस करके और दुर्धर जो अहंकार उससे गया है विवेक जिसका ऐसे मैंने |उस वक्तमें जो तेरा अपराध किया वह क्षमा कर ॥ ३२६ ॥ विणओणया य मयणा, भणेइमा ताय कुणसुमणखेयं । एयं मह कम्मवसेण चेव, सबंपि संजायं ॥२७॥15 । अर्थ-इस प्रकारसे राजाने वचन कह्यों के बाद विनयसे नम्र ऐसी मदनसुंदरी बोली हे पिताजी मनमें खेद मतकरो है यह सर्व मेरे कर्मके वशसेही भया है यहां थोडाभी आपका दोष नहीं है ॥ ३२७ ॥
नोदेई कोइ कस्सवि,सुक्खं दुख्खं च निच्छओएसोनिययं चेव समज्जियमुव जइजंतुणा कम्मं ॥२८॥ __ अर्थ-हे तात यह निश्चय है कोई किसीको सुख या दुःख नहीं देवे है किंतु जीव अपना किया हुआ कर्मही भोगवे है ॥ ३२८ ॥
॥४३॥ मा वहउ कोइ गवं, जं किर कजं मए कयं होइ । सुरवरकयंपि कजं, कम्मवसा होइ विवरीयं ॥३२९॥
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