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श्रीपाल -
चरितम्
॥ ५७ ॥
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अर्थ-तब धवलसेठ कहे भोकुमर घावके ऊपर खारकाप्रक्षेप क्या करो हो अथवा जले हुएके ऊपर क्या जलाओ हो यह आप जैसों के अयुक्त है ॥ ४४१ ॥
तो कुमरो भणइ फुडं अज्जवि जइ कोवि तुज्झ सवस्सं । वालेइ तस्स किं देसिं, मज्झ साहेसु तं सर्व्वं ४४२ अर्थ - तदनंतर कुमर प्रगट कहे कि भो श्रेष्ठिन् जो अभी भी तुम्हारा सर्वस्व पीछा लेआवे तो उसको तुम क्या | देओ सो सत्य मेरेसे कहो ॥ ४४२ ॥
धवलो भणेइ न हु संभवेइ, एवं तहावि तस्स अहं । देमि सबस अद्धं, इत्थ पमाणं परमपुरिसो ॥ ४४३ ॥
अर्थ-तब धवलसेठ बोला निश्चय ऐसा नहीं संभवे गया हुआ पीछा कहांसे आवे तौभी जो मेरा सर्वस्व पीछा |लेआवे उसको मैं आधाधन देउं इसमें परमपुरुष परमेश्वरही प्रमाण है अर्थात् साक्षीभूत है ॥ ४४३ ॥ तो कुमरो धणुहकरो, अंसेसुणुबद्धउभयतूणीओ । बुल्लावइ महकालं, पिट्ठी गंतूण इक्विल्लो ॥ ४४४ ॥
अर्थ - तदनंतर धनुष है हाथमें जिसके तथा कांधोके पीछे बांधा है बाणोंका भाथड़ा जिसने ऐसा कुमर एकाकी पीछे जाके महाकाल राजाको बुलावे ॥ ४४४ ॥ | भो बवरदेसाहिव, एवं गंतुं न लब्भए इन्हि । ता बलिऊण वलं मे, पिक्खसु खणमित्तमिक्कस्स ॥४४५॥
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भाषाटीकासहितम्.
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