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श्रीपालचरितम् ॥७३॥
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जं दवछक्काइसु सदहाणं, तं दंसणं सत्वगुणप्पहाणं, ।
* भाषाटीकाकुग्गाहवाही उ वयंति जेण, जहा विसुद्धेण रसायणेण ॥ ५६९ ॥
3 सहितम्. अर्थ-जो षड् द्रव्यादिकका श्रद्धान वह दर्शन नाम धर्म सर्व गुणोंमें प्रधान वर्ते है जिस सम्यक् दर्शन करके कुग्राह हठवाद ही रोग दूर होते है जैसे निर्मल रसायन करके, यह भाव है जरा व्याधिको मिटानेवाला औषध रसायन कहा जावे है उस रसायनसे जैसा सबरोग अच्छे होवे हैं वैसा ॥ ५६९ ॥
नाणं पहाणं नयचक्कसिद्धं, तत्तावबोहिक्कमयं पसिद्धं ।
धरेह चित्तावसहे फुरंतं, माणिक्कदीवुव तमोहरंतं ॥ ५७०॥ अर्थ-नैगमादि नयोंका चक्रनाम समूह उसकरके सिद्ध निष्पन्न और तत्वज्ञानही है एक स्वरूप जिसका ऐसा | सर्वत्र प्रसिद्ध प्रधान ऐसा ज्ञान अपने मनमंदिरमें धारो कैसा ज्ञान देदीप्यमान माणिक्य दीपकके जैसा अज्ञानरूप अंधकारको दूर करनेवाला ॥ ५७० ॥ सुसंवरं मोहनिरोहसारं, पंचप्पयारं विगयाइयारं ।
॥७३॥ मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं, पालेह निच्चंपि हु सच्चरित्तं ॥ ५७१ ॥
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