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श्रीपाल- अर्थ-उस सार्थ वाणिएको मैंने बांधा है उसके लिए क्या आज्ञा है क्या शिक्षा दी जाने तब राजा बोले आज्ञा भाषाटीका चरितम् दूभंग करे उसका प्राण लेना ॥ ५९१ ॥
| सहितम्. ॥७६ ॥ कुमरोभणेइ मा मा, मारणादेसमिह ठिओ देसु । सावज्जवयणकहणेवि, जिणहरे जेण गुरुदोसो ५९२/
| अर्थ-ऐसा राजाका वचन सुनके कुमर कहे हे महाराज इस जिनमंदिरकी भूमिमें रहे हुए मारनेकी आज्ञा मत देओ जिस कारणसे जिनमंदिरमें सदोषवचन कहने में भी महादोष होवे हैं ॥ ५९२ ॥
तो राया छोडाविय, आणावइ जाव निययपासंमि । तं दट्टणं कुमरो, उवलक्खइ धवलसत्थवइ ॥५९३॥ ४ FI अर्थ-तदनंतर राजा उसको छुडवाके जितने अपने पासमें बुलवावे उतने कुमर श्रीपाल देखके धवल सार्थ वाहको ६
पहिचाने यह तो धवल सार्थवाह है ऐसा जाने ॥ ५९३ ॥ चिंतइ मणे कुमारो, अहह कहं एरिसंपि संजायं। अहवा लोहवसेणं, जीवाणं किं न संभवइ॥ ५९४॥ ___ अर्थ-कुमर मनमें विचारे अहह इति खेदे ऐसा अकार्य कैसे भया अथवा जीवोंके लोभके वशसे क्या २ नहीं संभवे है अर्थात् सब अकार्य संभवे है ।। ५९४ ॥
5 ॥७६॥ तं नियजणयसमाणं, कहिउं मोआविओ नरिंदाओ।उवयारपरो कुमरो, विसज्जए निययठाणे य॥५९५॥
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