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श्रीपाल - चरितम्
॥ ५६ ॥
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अर्थ - इस अवसरमें उन जहाजोंके मनुष्योंकी हलवोलनाम अव्यक्तध्वनि सुनके उस प्रदेशमें वबर राजाने अधिकारी किया बंदरका लागालेनेवाला पुरुष आए लागा मासूल विशेष है ।। ४३३ ॥ मग्गंताणवि तेसिं, लागं नो देइ जाव सो सिट्ठी । ता तेहिं महाकालो, वहाविओ ववराहिवई ॥ ४३४ ॥
अर्थ - लागा मांगते भए राजपुरुषोंको जितने सेठ लागा नहीं देवे उतने उनपुरुषोंने महाकाल नामका वघर कुलके राजाके पासमें जाके कहा तब राजा उन्होंकी प्रेरणासे प्रेरित भया ॥ ४३४ ॥
महकालो भूरिबलो तत्थागंतूण मग्गए लागं । सिट्ठी न देई पद्धर - पएहिं सुहडे पचारेइ ॥ ४३५ ॥
अर्थ — उसके बाद बहुत सैन्य जिसके ऐसा महाकालराजा उस बंदर में आके लागा मांगे परंतु धवलसेठ पाधरे पगे लागा नहीं देवे सुभटोंकी युद्धके वास्ते प्रेरणा करे ।। ४३५ ॥
| तो धवलभडाउब्भड, -सत्था सहसति बधरभडेहिं । जुज्झति जओ लोए, मरंति पञ्चारिया सुहडा ४३६
अर्थ - तदनंतर धवलकेसुभट उद्भट भयजनक शस्त्र जिन्होंके पासमे ऐसे शीघ्र तत्काल वबर राजाके सुभटोंके साथ युद्ध करे जिस कारणसे लोकमें सुभट पौरप उत्पादक वचनोंसे प्रेरा हुआ अपने स्वामी के सामने प्राणोंका त्याग करे है अर्थात् मरते हैं ॥ ४३६ ॥
पढमं धवलभडेहिं, भग्गं महकालभडवलं सयलं । तो महकालनिवेणं, उट्ठवियं सबलतुरणं ॥ ४३७ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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