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श्रीपालचरितम् ॥५५॥
अर्थ-और उसवक्तमें कितनेक जहाजके चलाने वाले ध्रुवके तारेका मंडल देखे उससे दिशाओंका प्रमाण करे और भाषाटीकाकईक अंदर प्रवेशकिया जलको निकाले कईक काष्ठप्रयोगसे समुद्रकी वेलाका प्रमाण करे और कितनेक मार्ग जोवे ॥४२५॥ सहितम्. कत्थवि दट्टे मगरं, एगे वायंति ढुक्कलुक्काई। एगे य अग्गितिल्लं, खिवंति लहुढिंकलीयाहि ॥ ४२६ ॥ __ अर्थ-कोई प्रदेशमें मकर महामत्सविशेषको देखके कईक मनुष्य दुकलुक नामका चर्मसे मढ़ा हुआ वादित्र विशेष बजावे और कितनेक लोग लघुढिंकिलिका पात्र विशेषमें अग्नि जलाके तेल डाले ऐसा करनेसे वादित्रका शब्द
सुनके अग्निज्वाला देखके मगरमच्छ दूर चले जावें ॥ ४२६ ॥ |चोराण वाहणाई, दट्ट निययाई पक्खरिजति । पंजरिएहिं भडेहिं, चं | अर्थ और कोई प्रदेशमें चोरोंका जहाज देखके जहाजके ऊपर पिजरेमें बैठेहुए पुरुष अपने जहाजके सुभटोंको तयार करें तब वीर पुरुषोंको देखके चोर दूरसे चलेजावें ॥ ४२७ ॥ उग्गमणं अत्थमणं, रविणोदीसेइ जलहिमज्झमि । वडवानलपज्जलिया, दिसाउदीसंति रयणीसु ४२८ __ अर्थ-और उस वक्तमें सूर्यका उदय अस्त यह दोनों समुद्रके अंदरही देखाजावे तथा रात्रिमें वडवानलअग्निविशेषता करके दिशाएं जलती भई देखनेमें आवें ॥ ४२८ ॥ एवं बिहाइं कोऊहलाइं, पिक्खंतओ समुदस्स । जा वच्चइ कुमरवरो, ता पंजरिओ भणइ एवं ॥४२९॥
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