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श्रीपालचरितम् ॥७१॥
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कुमरोवि जिणं नमिउं, सीसंमि निवेसिऊण जिणसेसं, । वहिमंडवंमि करवंदणेण, वंदेइ नरनाहं ५५५/भाषार्टीका___ अर्थ-कुमरभी तीर्थंकरोंको नमस्कार करके और अपने मस्तकपर प्रभुका निर्माल्य पुष्पादिक रखके बाहिरके मंडपमें
सहितम्. राजाको नमस्कार करे अर्थात् हाथजोडके प्रणाम करे ॥ ५५५ ॥ नरनाहो अभिणंदिय, तं पभणइ वच्छ जह तए भवणं, उग्घाडियं तहा नियचरियं,-पि हु अम्ह पयडेसु ५६ है
अर्थ-राजा श्रीपालको आशीर्वादसे संतोषितकरके बोले हे वत्स जैसा तुमने जिनमंदिर उघाडा वैसा अपना चरितभी हमारे सामने प्रगट कहो अर्थात् कुलादिक कहो ॥ ५५६ ॥ नियनामंपि हुन जंपंति, उत्तमा ता कहेमि कह चरियं,।इय जाचिंतइ कुमरो, ता पत्तो चारणमुणिंदो॥ टू अर्थ-हु यह निश्चयमें है उत्तम पुरुष अपने मुखसे अपना नामभी नहीं कहे है तो मैं अपना चरित्र कैसे कहूं ऐसा |जितने कुमर विचारे उतने वहां आकाशमार्गसे चारण मुनीन्द्र आए ॥ ५५७॥
सो वंदिऊण देवे, उवविट्ठोजाव ताव तं नमिउं । उवविद्वेसु निवाइसु, चारणसमणो कहइ धम्म ५५८ | अर्थ-वह चारणलब्धिमान साधु देववंदना करके जितने बैठे उतने राजादिक उन साधुको नमस्कार करके सामने बैठे तब चारणलब्धिमान श्रमण राजादिक लोगोंके आगे धर्म कहने लगे ॥ ५५८॥
KAARAKS
॥७१॥
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