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श्रीपाल - चरितम्
॥ ४९ ॥
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अर्थ - वादमें साधकपुरुषोने स्वर्णसिद्धि करके और बोले हे कुमार हमारे यह स्वर्णरसकी सिद्धी भई सो आपका प्रसाद है ॥ ३७४ ॥
ता गिण्ह कणगमेयं, नो गिण्हइ निप्पिहो कुमारो य । तहविहु अलयंतस्सवि, कंपि हु वंधंति ते वत्थे ३७५ अर्थ - तिस कारण से यह सोना आप लेवो परन्तु कुमर निस्प्रही है नहीं लेवे तौभी नहीं लेता थकां भी कुमरके वस्त्रमें साधकपुरुष कितनाक सोना बांधे ॥ ३७५ ॥
तत्तो कुमरो पत्तो, कमेण भरुयच्छनामयं नयरं । कणगवएण गिण्हइ, वत्थालंकारसत्थाई ॥ ३७६ ॥
अर्थ — तदनंतर श्रीपाल कुमर भृगुकच्छ (भरुवच्छ) नगर पहुंचा वहां सोना वेचके वस्त्र अलंकार शस्त्रादि ग्रहण करे ३७६ काऊण धाउमढियं, ओसहिजुयलं च बंधइ भुयंमि । लीलाइ भमइ नयरे, सच्छंदं सुरकुमारु ॥३७७৷৷ अर्थ - और औषधि जुगल तीन धातुमें मढ़वाके भुजामें बांधे बाद कुमर देवकुमरके जैसी लीला करके स्वइच्छासे नगर में क्रीडाकरे ॥ ३७७ ॥ |इओ य कोसंवीनयरीए, धवलो नामेण वाणिओ अस्थि । सो बहुधणुत्ति लोए, कुवेरनामेण विक्खाओ ७८ अर्थ - इधर से कोशाम्बीनाम नगरीमें धवल नामका वानिया है वह धवल बहुत धन जिसके इस कारणसे लोकमें कुबेरनाम करके प्रसिद्ध भयाहै ॥ ३७८ ॥
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भाषाटीका सहितम्.
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