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श्रीपाल - चरितम्
॥ ५३ ॥
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तत्तो चल्लइ कुमरो, वियसियवयणो य लोयपरिअरिओ । चडिओ य धवलसहिओ, अग्गिल्ले जाणवत्तंमि ॥ अर्थ-उसके बाद कुमर विकस्वरमानमुख जिसका ऐसा और लोगोंसे परिवरा हुआ अर्थात् बहुत लोग जिसके साथमें है ऐसा चले धवलसेठ सहित आगेके जहाजपर चढ़ा ॥ ४०९ ॥
निजामएसु नियनिय, पवहणवावारकरणपवणेसु । कयनयपयझाणेणं, मुक्का हक्का कुमारेणं ॥ ४१० ॥
अर्थ-तब निर्यामक जहाज चलाने वालोंने अपना २ जहाज चलाने में तत्पर होनेसे किया है नवपदोंका ध्यान जिसने ऐसे श्रीपाल कुमरने उंचे स्वरसे हक्कारव किया अर्थात् हाक भरी ॥ ४१० ॥ सोऊण कुमरहकं, सहसा सा खुद्ददेवया नट्ठा । चलियाई पवहणाई, वृद्धावणयं च संजायं ॥ ४११ ॥
अर्थ - कुमरकी करीभई हक्का सुनके अकस्मात् वह क्षुद्रदेवता दुष्टदेवी भागगई और जहाज चले वधाई भई ॥ ४११ ॥ वज्रंति भेरिभुंगल, - पमुहाउज्झाई गुहिरसहाई । नञ्चंति नहियाओ, महुरं गिज्जंति गीयाई ॥ ४९२ ॥ अर्थ - तथा भेरी भुंगल प्रमुख दुंदुभि वगैरह; वादित्रोंका गंभीर शब्द है ऐसे वादित्र बजाए जावे हैं और नांचनेवाली स्त्रियां नांचतीहैं और मधुर गीतध्वनि होवे है ॥ ४१२ ॥ तं अच्छरियं दहुं, धवलो चिंतेइ एस जइ होइ । अम्ह सहाओ कहमवि, ता विग्धं होइ न कयावि ॥ ४१३ ॥
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2 भाषाटीका५ सहितम्.
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