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अर्थ - वह श्रीपाल कुमर ग्राम आकर पुर पत्तनोंमें कौतूहल देखता हुआ पंचानन सिंहके जैसा निर्भय चित्त | जिसका ऐसा भयाथका एक पर्वतके पासमें पहुंचा ॥ ३६२ ॥
तत्थ य एगंमि वणे, नंदणवणसरिससरसपुप्फफले । कोइलकलरवरम्मं, तरुपतिं जा निहालेइ ॥ ३६३॥
अर्थ - वहां पर्वतके समीपदेशमें एक वनमें वृक्षोंकी पंक्ति यानें श्रेणी जितने देखे कैसा है वन नंदनवन सदृशसरस पुष्पफल है जिसमें कैसी है वृक्षोंकी पंक्ति कोयलोंकी मधुर धुनि करके रमणीक है ॥ ३६३ ॥ ता चारुचंपयतले, आसीणं पवररूवनेवत्थं । एगं सुंदरपुरिसं, पिक्खइ मंतं च झायंतं ॥ ३६४ ॥
अर्थ - उतने मनोहर चंपक वृक्षके नीचे रहा हुआ और प्रधानरूप आकृति वेष जिसका ऐसा एक पुरुष मंत्र ध्याता हुआ देखे || ३६४ ॥
| सो जाव समत्तीए, विणयपरो पुच्छिओ कुमारेण । कोसि तुमं किं झायसि, एगागी किं च इत्थ वणे | ३६५
अर्थ- वह पुरुष जाप समाप्ति होनेपर विनयमें तत्परभया उसको कुमरने पूछा तैं कौन है क्या ध्यावे है और इस वनमें एकाकी क्यों रहा है ॥ ३६५ ॥
| तेणुत्तं गुरुदत्ता विज्जा, मह अस्थि सा मए जविया । परमुत्तरसाहगमंतरेण, सा मे न सिज्झेइ ॥ ३६६॥
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