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श्रीपालचरितम्
भाषाटीकासहितम्.
॥४२॥
अर्थ-प्रधान आवास रहनेके वास्ते देवे तथा धन धान्य कांचन वगैरहः सर्व वस्तु पूर्ण करे श्रीपाल कुमर उस आवासमें दोगंदुक त्रायस्त्रिंशक इन्द्रके पुरोहित स्थानीय देवोंके जैसी लीला करके रहे ॥ ३१७॥ अन्नदिणे तस्सावास,-पाससेरीइ निग्गओराया। पिक्खइ गवक्खसंठिय,-कुमरं मयणाइ संजुत्तं ॥३१॥ __अर्थ-अन्य दिनमें श्रीपालके आवासके पासमें सेरी मार्ग विशेष उस मार्गसे राजा निकला उस आवासके गोखहै डेमें मदनसुंदरीसहित श्रीपाल कुमरको बैठा भया देखा सेरी यह देशी शब्द है ॥ ३१८ ॥
तो सहसा नरनाहो, मयणं दट्टण चिंतए एवं । मयणाइ मयणवसगाइ, मह कुलं मइलियं नूणं ॥३१९॥ BI अर्थ-तदनंतर राजा प्रजापाल अकस्मात मदनसुंदरीको देखके इस प्रकारसे विचारकिया, कामके वसपड़ी भई
मदनसुंदरीने निश्चय मेरे कुलको मलीन किया ॥ ३१९ ॥ |इक्वं मए अजुत्तं, कोवंधेणं तया कयं वीयं । कामंधाइ इमीए, विहियं ही ही अजुत्तयरं ॥ ३२०॥ __ अर्थ-उस अवसरमें एक तो मैंने कोपान्ध होके अयुक्त किया जो कोढ़िएको अपनी पुत्री दी और दूसरा इसने कामान्ध होके ही ही इति खेदे अयुक्ततर अतिशय अयुक्त किया जिसने अपने पतिको छोड़के अन्य पति अंगीकार किया ॥ ३२०॥ एवं जायविसायस्स, तस्स रन्नो सुपुण्णपालेण । विन्नतं तं सवं, धूयाचरियं सअच्छरियं ॥३२१॥
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