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श्रीपाल - चरितम्
॥ ३२ ॥
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अर्थ — दूसरे दिनमें श्रीपाल कुमर के विशेष करके रोगका उपशम हुआ इस प्रकारसे दिन २ में रोगका क्षय होनेसे शुभ परिणामकी वृद्धि होवे ॥ २३५ ॥
अह नवमे दिवसंमी, पूयं काऊण वित्थरविहीए। पंचामएण न्हवणं, करेइ सिरिसिद्धचक्कस्स ॥ २३६ ॥ अर्थ - बाद नवमे दिनमें विस्तारविधिसे श्री जिनपूजा करके पंचामृत से श्री सिद्धचक्रयंत्रराजका विस्तारसे स्नात्र महोत्सव करे ॥ २३६ ॥ न्हवणूसवंमि विहिए, तेणं संतीजलेण सवंगं । संसित्तो सो कुमरो, जाओ सहसति दिवतणू ॥ २३७ ॥
अर्थ - श्री सिद्धचक्रका स्नात्रमहोत्सव करनेपर उस शान्ति जलसे सर्वशरीरसींचा अर्थात् वह जल शरीरमें लगाया तब वह कुमर अकस्मात् मनोहर अद्भुत दिव्य शरीर जिसका ऐसा भया ॥ २३७ ॥ सवेसिं संजायं, अच्छरियं तस्स दंसणे जाव । तात्र गुरू भणइ अहो, एयस्स कि मेयमच्छरियं ॥ २३८॥
अर्थ- वैसा रूप श्रीपालका देखनेसे जितने सब लोगोंको आश्चर्य भया उतने गुरू कहे अहो लोगो यह कुछभी आश्चर्य नहीं है किंतु ॥ २३८ ॥
इमिणा जलेण सब्बे, दोसा गहभूयसाइणीपमुहा । नासंति तक्खणेणं, भवियाणं सुद्धभावाणं ॥ २३९ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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