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श्रीपाल - चरितम्
॥ ३४ ॥
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अर्थ - मदनसुंदरी भी अपने भर्तारकी माता जानके जितने नमस्कार करे उतने कुमर कहे हे माताजी यह प्रत्यक्ष जो देखा जाय है यह सर्व इस आपकी बहूका प्रभाव है ।। २५१ ॥
साणंदा सा आसीस, दाणपुवं सुयं च वहुयं च । अभिनंदिऊण पभणइ, तइयाहं वच्छ ! तं मुत्तुं ॥ ५२ ॥
अर्थ - कुमरकी माता आनंद सहित होके आशीर्वाद देने पूर्वक पुत्र और पुत्रकी बहूकी प्रशंसा करके कहने लगी अपना वृतान्तसो कहते है है वत्स उस वक्त में मैं तेरेको यहां रखके ॥ २५२ ॥
कोसंबीए बिजं सोऊणं, जाव तत्थ वच्चामि । ता तत्थ जिणाययणे, दिट्ठो एगो मुणिवरिंदो ॥ २५३॥
कौसांबी नगरीमें सब रोगको मिटानेवाला वैद्यको सुनके जितने वहां जाऊं उतने उस नगरीमें एक मुनिवरिन्द्रको देखा कैसा है मुनीन्द्र सो कहते हैं ॥ २५३ ॥
खंतो दंतो संतो, उवउत्तो गुत्तिमुत्तिसंयुत्तो । करुणारसप्पहाणो, अवितहनाणो गुणनिहाणो ॥ २५४॥
अर्थ - क्षमायुक्त दान्त नाम जितेन्द्रिय शान्तरस युक्त उपयुक्त उपयोगवान मन वचन कायाकी गुप्ति सहित और निर्लोभी और करुणारस प्रधान जिसके तथा सत्य ज्ञान जिसका इसीसे गुणोंका निधान ॥ २५४ ॥ धम्मं वागरमाणो, पत्थावे नमिय सो मए पुट्ठो । भयवं किं मह पुत्तो, कयावि होही निरुयग्रतो ॥५५ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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