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श्रीपाल - चरितम्
॥ ३७ ॥
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चिअ वंदणं समग्गं, काऊणं मयणसुंदरी जणणिं । कर वंदणेण वंदिय, वियसियवयणा भणइ एवं २७६ अर्थ - तदनंतर मदनसुंदरी संपूर्ण चैत्य वंदना करके अपनी माताको हाथजोड़के प्रणाम करके विकस्वरमान मुख जिसका ऐसी कहा जायगा जिसका स्वरूप ऐसा वचन बोली ॥ २७६ ॥
अम्मो ? हरिसठ्ठाणे, कीस विसाओ विहिज्जए एवं, । जं एसो नीरोगो, जाओ जामाउओ तुम्हं ॥२७७৷ अर्थ- सो कहते हैं हे माताजी हर्षके ठिकाने दुःख कैसा करो हो जिसकारणसे यह तुम्हारा जमाई निरोग भया है इसलिए यहां हर्ष करना युक्त है ऐसा भाव है ॥ २७७ ॥
अन्नं च जं वियप्पह, तं जइ पुवाइ पछिम दिसाए, उग्गमइ कहवि भाणू, तहवि न एयं नियसुयाए २७८
अर्थ — और जो अकार्यका आचरण लक्षण अपनी पुत्रीका विचारो हो वह तो जो सूर्य पूर्वदिशिको छोड़के पश्चिम | दिशिमें ऊगे तथापि तुम्हारी पुत्रीसे नहीं होवे अर्थात् मदनसुंदरीसे अकार्य कभी होवे नहीं ॥ २७८ ॥ कुमरजणणीवि जंप, सुंदरि ? मा कुणसु एरिसं चित्ते । तुज्झ सुयाइ पभावा, मज्झ सुओ सुंदरी जाओ ॥
अर्थ — तब कुमरकी माता भी बोली हे सुंदरि तुम अपने मनमें ऐसा विचार करना नहीं जिस कारणसे तुम्हारी | पुत्री के प्रभाव से यह मेरा पुत्र ऐसा सुंदर भया है ॥ २७९ ॥ धन्नासि तुमं जीए, कुच्छीए इत्थिरयणमुप्पन्नं । एरिसमसरिससीलप्प-भावचिंतामणिसरिच्छं ॥ २८०॥ |
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भाषाटीकासहितम्.
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