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एएण कारणेणं, पसन्नचित्तेण सुद्धसीलेण । आराहणिज्जमेयं, सम्मं तवकम्मविहिपुवं ॥ २१६ ॥
अर्थ - इस कारण से प्रसन्न निर्मल चित्त जिसका वह और शुद्धशील जिसका ऐसे पुरुषको यह सिद्धचक्र सम्यक् तप कर्म विधिपूर्वक आराधना तप यहां आबिल होवे है और विधिः पूजन ध्यानादि सम्बन्धी तत् पूर्वक ॥ २१६ ॥ आसोयसेयअट्टमिदिणाओ, आरंभिऊणमेयस्स । अट्ठविहपूयपुवं, आयामे कुणह अट्ठ दिणे ॥ २१७ ॥
अर्थ - आसोज शुदि अष्टमीके दिनसे प्रारंभ करके इस सिद्धचक्रकी अष्टप्रकारी पूजा करके आठदिनतक अहो भव्यो आंबिलका तप करो यद्यपि मूलविधिः से अष्टमीके दिनसे तप करना कहा है परन्तु वर्तमानमें पूर्वाचार्योंकी आ चरणासे सप्तमीसे किया जावे है ऐसा जानना ॥ २१७ ॥
नवमंमि दिणे पंचामएण, न्हवणं इमस्स काऊणं । पूयं च वित्थरेणं, आयंविलमेव कायवं ॥ २९८ ॥
अर्थ - नवमे दिन सिद्धचक्रका दही दूध घी, जल, शर्करा स्वरूप पंचामृत से स्नात्रकराके और विस्तारसे पूजा करके आंबिलही करना ॥ २१८ ॥
एवं चित्तेवि तहा, पुणोपुणोऽहाहियाण नवगेणं । एगासीए आयंविलाण, एयं हवइ पुन्नं ॥ २१९ ॥ अर्थ - इस प्रकारसे चैत्र महीने में भी करना इसी प्रकारसे वारंवार करनेसे नव अट्ठाई होनेसे ८१ इक्यासी आविलों करके यह तप पूर्ण होवे है ॥ २१९ ॥
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