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श्रीपाल - चरितम्
॥ २९ ॥
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खंतो दंतो संतो, एयस्साराहगो नरो होइ । जो पुण विवरीयगुणो, एयस्स विराहगो सो उ ॥ २९२॥ अर्थ - अब इसके आराधकका स्वरूप कहते हैं क्षांतः - क्षमायुक्त दांतः - जितेन्द्रियः शांतः- मनका विकार जीता जिसने ऐसे मनुष्य इस सिद्ध चक्र के आराधक होते हैं और जो विपरीत गुणवाला कामक्रोधादि युक्त वह पुरुष इस सिद्धचक्रका विराधक होवे है ।। २१२ ॥
तम्हा एयस्साराहगेण, एगंतसंतचित्तेणं । निम्मलसीलगुणेणं, मुणिणा गिहिणा वि होय ॥ २१३ ॥
अर्थ — इस कारण से इस सिद्धचक्रका आराधक मुनिः और ग्रहस्थको भी ऐसा होना कैसा सो कहते हैं एकान्त निश्चय करके शान्त विकार रहित चित्त जिसका और निर्मल शील गुण जिसका ऐसा ॥ ११३ ॥ जो होइ दुट्ठचित्तो, एयस्साराहगोवि होऊण । तस्स न सिज्झइ एयं, किंतु अवायं कुणइ नूणं ॥ २९४ ॥
अर्थ - जो पुरुष इसका आराधकभी होके दुष्टचित्तवाला हो उस पुरुषके यह सिद्धचक्र नहीं सिद्ध होवे किंतु निश्चय कष्टकारी होवे अर्थात् कष्ट पावे ॥ २१४ ॥ जो पुण एयस्साराहगस्स, उवरिंमि सुद्धचित्तस्स । चिंतइ किंपि विरूवं, तं नृणं होइ तस्सेव ॥ २१५ ॥ अर्थ- शुद्ध चित्त है जिसका वह शुद्ध चित्तवाला सिद्धचक्र के आराधक पुरुषके ऊपर कोई दुष्ट पुरुष कुछभी अशुभ विचारे वह अशुभ विचाराहुआ निश्चय उसी विचारनेवाले पुरुषके ऊपर पड़े ॥ २१५ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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