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18| अर्थ-किस प्रकारसे धर्म कहे सो कहते हैं अहो भन्यो शोभन मनुष्यपनो और उत्तम कुल वहांभी शोभनरूप ||
आकृति पांच इन्द्रिय पटु प्रगट वहां भी सब लोगोंको वल्लभ होना और निरोगता बड़ा आयुः और सम्पदा और वृद्धिः पुत्रादि परिवार और स्वामीपना कीर्ति इतनी वस्तुवां पुन्यके प्रसादसे धर्मके प्रभावसे प्राणी पावे है ॥ ८४ ॥ इच्चाइदेसणंते, गुरुणो पुच्छंति परिचियं मयणं । वच्छे कोऽयं धन्नो, वरलक्खणलक्खिय सुपुन्नो? ८५ । अर्थ-इत्यादि देशनाके अंतमें गुरूने अपनी परचित मदनसुंदरीसे पूछा हे वत्से यह तेरे आगे रहा हुआ धन्य प्रशंसनीय और प्रधान लक्षणोंसहित शोभन पुण्य जिसका ऐसा कौन पुरुष है ॥ ८५ ॥ मयणाइ रुयंतीए, कहिओ सबोवि निययवुत्तो। विन्नत्तं च न अन्नं, भयवं? मह किंपि अत्थि दुहं ८६ | अर्थ-तब मदनसुंदरी रोती भई सबही अपना वृत्तान्त कहा और बीनती किया हे भगवान हे पूज्य मेरेको और
कुछभी दुःख नहीं है ॥ ८६॥ हा एवं चिय मह दुक्खं, जं मिच्छादिट्रिणो इमे लोया। निंदंति जिणह धम्म, सिवधम्म चेव संसंति ॥८७॥ __ अर्थ-किंतु यही बड़ा दुःख है जो मिथ्यादृष्टि यह लोग जैनधर्मकी निंदा करे है मिथ्या धर्मकी प्रशंसा | करे है ॥ ८७॥
ता पहु कुणह पसायं, किंपि उवायं कहेह मह पइणो। जेणेस दुट्ठवाही, जाइ खयं लोयवायं च ॥८॥ श्रीपा.च.५
BRUARCASUAGRAMMARY
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