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( ३३ ) अपने आपको न जानने वाला, मुर्ख, जड-मा तावद- गणनाप्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासा, अद्यापि नात्मज्ञे-श०६,-संपन्न (वि.) मुर्ख।
तत्तल्यकवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव । सुभा०। अनात्मनोन (वि०) [नञ+आत्मन् +ख जो अपने ही | अनायत्त (वि.) [न० त०] जो दूसरे के वशीभूत न हो,
लाभ के लिए कार्य करने का अभ्यस्त न हो, निः | तो रोषस्य का० ४५ जो क्रोध के वशीभूत न हो, स्वस्वार्थ, स्वार्थ रहित।
तंत्र--एतावज्जन्मसाफल्यं यदनायत्तवत्तिता-हिं० अनात्मवत् (वि०) [आत्मा वश्यत्वेन नास्ति इत्यर्थे- २।२२, स्वतंत्र जीविका। • ना +आत्मन् मत्प् न० त०] असंयमी, इन्द्रिय | अनायास (वि.) [न० त०] जो कष्टप्रद या कठिन न हो, परायण।
आसान,-ममाप्येकस्मिन् °से कर्मणि त्वया सहायेन अनाथ (वि.) [ न० ब०] असहाय, निर्धन, त्यक्त, मात- भवितव्यम्-श०२,-स: 1 सरलता, कठिनाई का
पितहीन, बिना मां-बाप का बच्चा, विधवा स्त्री, अभाव,---°सेन आसानी से, बिना किसी कठिनाई के । सामान्यतः जिसका कोई रक्षक न हो-नाथवन्तस्त्वया । अनारत (वि.) [न० त०] 1. अनवरत, निरन्तर, अबाध लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यसे उत्तर० ११४३ । सम० 2 नित्य, ----तम् (अव्य०) लगातार, नित्यरूप से - -सभा अनाथालय।
अनारतं तेन पदेष लंभिता: --कि० ११५, ४०। अनादर (वि०) [ न० ब०] उदासीन, उपेक्षावान्, अनारम्भः [न० त०] आरम्भ न होना-विकारं खलु ..--रः [न० त०] अवहेलना, तिरस्कार, अवज्ञा-षष्ठी- परमार्थतोऽज्ञात्वा ° भः प्रतीकारस्य-श० ३। चानादरे--पा० २१३, ३८ ।
अनार्जव (वि०) [न० त०] कुटिल, बेईमान-वम् 1 अनादि (वि.) [न० ब०] आदि रहित, नित्य, अनादि- कुटिलता, कपट 2 रोग।
काल से चला आता हुआ,--जगदादिरनादित्व-कु० | अनार्तव (वि.) [स्त्री०-वी] [न०त०] असामयिक-वा वह २१६ । सम०.-अनन्त,-अन्त (वि.) आदि और | कन्या जो अभी तक रजस्वला न हुई हो। अन्त रहित, नित्य (–तः) शिव,--निधन (वि.) अनार्य (वि.) [न० त०] अप्रतिष्ठित, नीच, अधम जिसका आरंभ और समाप्ति न हो, शाश्वत, मध्यान्त ---य: 1 जो आर्य न हो, 2 वह देश जहाँ आर्य न हों, (वि०) जिसका आदि, मध्य और अन्त कुछ भी न हो, 3 शूद्र 4 म्लेच्छ 5 कमीना। नित्य ।
अनार्यकम् [ अनार्य देशे भवम् --अनार्य+क] अगर की अनादीनव (वि०) [न०1० 1 निर्दोष,-यदासदेवेनादी- |
लकडी। नमनादीनवमीरितम्-शि० २।२२ ।
अनार्ष (वि.) [न० त०] 1 जो ऋषियों से सम्बन्ध न अनाद्य (वि.) [ न० त०] 1 =दे० अनादि, 2 अभक्ष्य, | रखता हो, अवैदिक-संबुद्धौ शाकल्यस्येतो अनार्षेखाने के अयोग्य ।
पा० १११११६, (=-अवैदिके-सिद्धा०) 2 जो ऋषिअनानुपूर्व्यम् | न० त०] 1 दूसरे पदों के बीच में आ जाने प्रोक्त न हो।
के कारण समास के विभिन्न पदों का पृथक्करण 2 | अनालंब (वि.) [न० ब०] असहाय, अवलंबहीन -ब: नियत क्रम में न आना।
___ अवलंब का अभाव, नैराश्य, –ी शिव की वीणा। अनाप्त (वि.) [ न० त०] 1 अप्राप्त 2 अयोग्य, अकु- | अनालंबु (भु) का [ न० त०] रजस्वला स्त्री। शल -प्तः अजनवी।
अनावतिन् (वि.) [न० त०] फिर न होने वाला, फिर अनामक 1 (वि० )[ न० ब० स्वार्थ कन्] बिना नाम का, न लौटने वाला। अनामन् । अप्रसिद्ध,-(पुं०) 1 मलमास 2 कनिष्ठिका | अनाविद्ध (वि०) [ न० त०] न बिधा हुआ, जिसमें छिद्र
तथा मध्यमा के बीच की अंगली दे० नीचे 'अना- न किया गया हो। मिका'।-(नपुं० ) बवासीर ।
अनावृत्तिः (स्त्री०) [न० त०] 1 फिर न लौटना 2 फिर अनामय (वि) [ नास्ति आमयः रोगो यस्य न० ब० ] स्व- जन्म न होना, मोक्ष।।
स्थ, तंदुरुस्त,-यः,-यम् स्वास्थ्य अच्छा होना- | अनावृष्टिः (स्त्री०) [न० त०] सूखा पड़ना, 'ईति' का महाश्वेता कादम्बरीमनामयं पप्रच्छ-का० १९२, एक भेद । उसके स्वास्थ्य के विषय में पूछताछ की,—यः विष्णु | अनाश्रमिन् (पु.) [न० त०] जो जीवन के चार आश्रमों (कइयों के मत में 'शिव')।
में से किसी को न मानता हो, न किसी से सम्बन्ध रखता मनामा, अनामिका [ नास्ति नाम अन्यांगुलिवत् यस्याः- हो। अनाश्रमी न तिष्ठेत्तु क्षणमेकमपि द्विजः-स्म।
स्वार्थे कन् ] कानी तथा बिचलो अंगुली के बीच की | अनाश्रव (वि.) [ नश्+आ+श्रु+अच् ] जो किसी की अंगुली-इसका यह नाम इस लिए पड़ा कि दूसरी अंगु- न सुने, ढीठ, किसी की बात पर कान न दे-भिषजालियों की भांति इसका कोई नाम नहीं; पुरा कवीनां । मनावः रघु० १९:४९ ।
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