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समवायांग सूत्र
दूजा भी नहीं चिंतिये, कर्म बंध बह दोष । तीजा चौथा ध्याय के, करिये मन संतोष ॥
अत एव प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग पारने के बाद सिर्फ इतना ही बोलना चाहिए कि - "कायोत्सर्ग में आर्तध्यान रौद्रध्यान ध्याया हो तो मिच्छामि दुक्कडं। कुछ लोग ऐसा भी बोलते हैं कि - "धर्मध्यान शुक्ल ध्यान नहीं ध्याया हो" तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। परन्तु यह बोलना ठीक नहीं है क्योंकि कायोत्सर्ग स्वयं धर्म ध्यान रूप है और शुक्ल ध्यान श्रेणी चढ़ते समय आठवें गुणस्थान में आता है। वर्तमान में न तो उपशम श्रेणी है और न क्षपक श्रेणी है और न आठवाँ गुणस्थान है। दूसरी बात यह है कि 'मिच्छामि दुक्कडं' पाप. का दिया जाता है। धर्म का नहीं। आर्तध्यान रौद्रध्यान पाप रूप हैं और धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान दोनों धर्म रूप हैं। अतः इन दोनों का मिच्छामि दुक्कडं नहीं दिया जाता है। ___ आर्तध्यान की अपेक्षा रौद्रध्यान ज्यादा अशुभ हैं। आर्तध्यान में तो सिर्फ स्वयं के ही कर्म बन्ध होता है किन्तु रौद्रध्यान में स्वयं के और दूसरों के भी कर्मबन्ध होते हैं। रौद्रध्यान के परिणाम बड़े क्रूर और हिंसक होते हैं।
विकथा - कर्मबन्ध कराने वाली कथा को 'विकथा' कहते हैं। इनके चार भेद हैं फिर प्रत्येक के चार-चार भेद हो जाते हैं। जिसका विस्तृत वर्णन ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे में है। इसी प्रकार बन्ध का भी विस्तृत वर्णन ठाणाङ्ग सूत्र में है।
आहार करना आहार संज्ञा नहीं है किन्तु आहार की अभिलाषा (इच्छा) करना आहार संज्ञा है। इस में मोहनीय कर्म की प्रधानता होती है। आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक ही रहती है। जब कि - आहार तो तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान् भी करते हैं। किन्तु उनके आहार संज्ञा नहीं है। छठे गुणस्थान के बाद सातवें गुणस्थान से लेकर सभी संयत "णो सण्णावठत्ता" (नो संज्ञोपयुक्त) कहलाते हैं।
बन्ध - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद ,कषाय, योग के निमित्त से अनन्त-अनन्त कर्म वर्गणा आत्मा के एक-एक प्रदेश के साथ बन्ध जाती है, उसे बन्ध कहते हैं।
चौबीस अंगुल का एक हाथ, चार हाथ का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक कोस और चार कोस का एक योजन होता है। धनुष, दण्ड, युग (जुग), नालिका, अक्ष, मुसल, ये सभी चार-चार हाथ के होते हैं, इसलिये धनुष शब्द के साथ इनका भी प्रयोग किया गया है।
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