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समवाय४
श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाहरी श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को चार हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक-भव्य जीव चार भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ४ ॥
विवेचन - कषाय - "कष्यन्ते पीड्यन्ते प्राणिनो अस्मिन् इति कषः संसारः तस्य आयः लाभः इति कषायः" जिसमें संसारी प्राणी दुःख भोगते हैं उसे कष कहते हैं। अर्थात् संसार का दूसरा नाम कष है। उसकी प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं। जन्म-मरण का कारण ही कषाय हैं। जैसा कि कहा है - . "रागो य दोसो वि य कम्मबीयं ।" .
अर्थात् - राग और द्वेष ये दो ही कर्म के बीज हैं। अपनी आत्मा का हित चाहने वाले पुरुषों का कर्तव्य है कि - वे राग-द्वेष रूपी कषाय का सर्वथा त्याग कर दें।
कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्डणं ।
वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ : अर्थ - अपनी आत्मा का हित चाहने वाले साधक को चाहिए कि - वह क्रोध, मान, माया और पाप वर्धक लोभ का वमन कर दे। गाथा में "वमन" करना कहा है। इसका आशय यह है कि - छोड़ी हुई वस्तु को तो पच्चक्खाण के काल की मर्यादा के उपरान्त व्यक्ति फिर उस वस्तु को ग्रहण कर लेता है किन्तु वमन की हुई चीज को कोई भी ग्रहण नहीं करता। इसीलिये ज्ञानियों का फरमाना है कि - क्रोधादि कषाय को केवल छोड़े ही नहीं किन्तु सर्वथा वमन कर देना चाहिये फिर कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये।
ध्यान - 'किसी एक वस्तु को लक्ष्य कर उस पर चित्त को स्थिर करना 'ध्यान' कहलाता है। छद्मस्थों के लिये ध्यान का कालपरिमाण एक अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान का संक्रमण होने पर ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी रह सकता है। वीतराग भगवान् का ध्यान तो योगों का निरोध करना मात्र है। ध्यान के चार भेद हैं। उनमें से आर्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त (अशुभ) ध्यान हैं। ये दोनों सर्वथा छोड़ने योग्य हैं। धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान ये दोनों प्रशस्त (शुभ) ध्यान हैं। ये दोनों आत्मा का कल्याण करने वाले हैं जैसा कि - बृहदालोयणा में कहा है -
राई मात्र घट वध नहीं, देखा केवल ज्ञान । यह निश्चय कर जानके, तजिये प्रथम ध्यान ॥
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