________________
आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
15 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि पिण्ड तथा अनंतर-अनंतरागत दोष से युक्त पिण्ड ग्रहण करने पर एकासन का प्रायश्चित्त आता है। ओघ - औद्देशिकदोष ( सामान्य रूप से साधुओं के लिए बनाया गया आहार), औद्देशिकदोष (किसी विशेष साधु के लिए बनाया गया आहार), उपकरण पूतिदोष, स्थापनादोष, प्राभृतदोष, लोकोत्तरप्रामित्यदोष, लोकोत्तरपरिवर्तनदोष, परभावक्रीतदोष, स्वग्राम आहतदोष, मालोपहृतदोष, जघन्यदर्दरादिकदोष, सूक्ष्मचिकित्सादोष, सूक्ष्मसंस्तवदोष, म्रक्षितत्रिकदोष, दायकपिहितदोष, प्रत्येकपिहितदोष, परम्परपिहितदोष, दीर्घकालीनस्थापितदोष, अनंतरस्थापितपिहितमिश्रदोष तथा इसी प्रकार अन्य दोषों की शंका होने पर पूर्वार्द्ध प्रा आता है। इनके अतिरिक्ति स्थापित सूक्ष्मदोष, सरजस्कदोष, स्निग्धदोष, प्रक्षितदोष, परम्परमिश्रदोष, स्थापितदोष, परिष्ठापनदोष एवं इसी प्रकार के अन्य दोषों का प्रायश्चित्त उत्तमजनों ने निर्विकृति बताया है।
इन सभी दोषों की विस्मृति होने पर तथा इनका प्रतिक्रमण किए बिना यदि उस आहार को ग्रहण कर लिया हो, तो उपवास का प्रायश्चित्त आता है। दौड़ने, लांघने, शीघ्र गति से चलने, संघर्षण करने, क्रीड़ा करने, कौतुक करने, वमन करने, गीत गाने, ज्यादा हँसने, ऊँचे स्वर से बोलने या कठोर वचन बोलने तथा प्राणियों की आवाज निकालने में इन सब कृत्यों के लिए गीतार्थों ने बेले, अर्थात् निरन्तर दो उपवास का प्रायश्चित्त बताया है। तीन प्रकार की उपधि भ्रांति के कारण या विस्मृति के कारण प्रतिलेखना के बिना रह जाएं तो उन तीनों प्रकार की उपधियों के लिए क्रमशः निर्विकृति, पूर्वार्द्ध एवं एकासन का प्रायश्चित्त बताया गया है । ज्येष्ठ को निवेदन किए बिना कोई किसी की उपाधि उठा ले जाए, उसका हरण कर ले या उसे धोए, अन्य किसी को दे, दूसरे के द्वारा बिना दिए ही उसका भोग करे या उसे ले ले, तो उसके प्रायश्चित्त के लिए क्रमशः जघन्य से एकासन, मध्यम से उपवास एवं उत्कृष्ट से निरन्तर दो उपवास ( बेले) का तप बताया गया है। ये सभी क्रियाएँ स्वयं करने पर मुनिजनों ने उसके लिए बेले का प्रायश्चित्त बताया है। मुखवस्त्रिका अथवा धर्मध्वज (रजोहरण) में से किसी एक के गिरने पर नीवि का
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International
-