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आचारदिनकर (खण्ड-४) 419 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि त्यागकर आत्मज्ञान द्वारा समताभाव, अर्थात् समाधि में अपने मन को स्थिा करे। सभी कार्यों को उनके आचार सम्बन्धी विधि- विधान के साथ सम्पादित करने पर विशुद्ध भावपूर्वक आत्मज्ञता प्राप्त होती है। श्रेष्ठ मनुष्य आत्मिक आनंद से परिपूर्ण होकर समाधिपूर्वक शिवपद को प्राप्त करता है।
इस प्रकार वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर नामक ग्रन्थ में . तत्त्वालोककीर्तन नामक महाद्योत सम्पूर्ण होता है।
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