Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 462
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४ ) 418 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सर्वत्र उदासीनता ही प्राणियों के मोक्ष का कारण मानी गई है और मोक्ष में जो बाधक तत्त्व है, वह मानसिक - आसक्ति है और वही बन्धन का हेतु है । समाधि में अनासक्त व्यक्ति मनोहर शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध से युक्त होता हुआ भी कर्मों में लिप्त नहीं होता 1 । अनासक्ति के कारण उसे कर्म का लेप नहीं लगता, अर्थात् कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं । निरपेक्ष भाव से सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ होने पर भी उदासीनता की वृत्ति वाले एवं समभाव में स्थित व्यक्ति को कर्मबन्ध नहीं होता है । सभी बाह्य विषयों से उपरत होकर बुद्धिमान् व्यक्ति आत्मज्ञान में स्थिरतापूर्वक मन को स्थापित करे । बिना आत्मज्ञान के करोड़ों पूर्वजन्मों में किए गए उत्तम दान एवं अति कठोर तप द्वारा भी जीव को मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। सभी विषयों को ग्रहण करते हुए, सभी कर्मों को ग्रहण करते हुए भी आत्मज्ञानी साधक संसार - परिभ्रमण हेतु कर्मबन्धन को प्राप्त नहीं होता I ध्यानरूपी अग्नि में कर्मबन्धन को भस्मसात करने वाले आत्मज्ञानी (साधक) को शुभाशुभ कार्यों द्वारा न तो पुण्य का बंध होता है और न पाप का बन्ध होता है । जिस प्रकार घी से लिप्त घड़े पर जल की बूँद नहीं टिकती है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी साधक को कर्मबन्धन भी नहीं होता है, अर्थात् वह कर्मलेप से मुक्त रहता है । आत्मज्ञानी साधक को सम्पूर्ण संसार तृण के समान असार प्रतीत होता है । अपनी आत्मा के आनंद में निमग्न वह साधक अन्य किसी परवस्तु में आसक्त नहीं होता है । ( वह निर्द्वद स्थिति को प्राप्त हो जाता है ।), अतएव श्रेष्ठ व्यक्ति सद्गुरु के सान्निध्य से आत्मतत्त्व जानकर, अर्थात् सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके क्रमशः निर्मल हुए अपने मन को समभाव की साधना में लगाए । जिस प्रकार गृहस्थाश्रम में शोभन पत्नी श्रेष्ठ एवं सारभूत मानी जाती है, उसी प्रकार सभी यतियों के लिए समाधि मोक्ष का सारभूत हेतु मानी गई हैं। मोक्षाभिलाषी साधक निरर्थक वाणी के वैभव से समुद्भूत इस सम्पूर्ण सांसारिक मायाजाल को, अथवा मोहपाश को अच्छी प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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