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आचारदिनकर (खण्ड-४) 421 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करने वाले जिनेश्वरसूरि हुए। तत्पश्चात् उनके पट्ट पर नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि हुए, जिन्होंने अपने भक्तिरूपी गुण से स्तभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा को प्रकट किया। उनके पाट पर श्रावकों को प्रबोध देने में प्रवीण तथा देवों एवं मनुष्यों के प्रिय जिनवल्लभसूरि हुए। तत्पश्चात् उनकी पट्ट-परम्परा में रुद्रपल्ली-गच्छ नामक खरतर-परम्परा की शाखा के यश को प्रसारित करने वाले आचार्य जिनशेखरसूरि हुए। उसके बाद दुर्वादीरूपी कमल हेतु चन्द्रमा की आभा वाले, गण में अग्रणी प्रसन्नमुद्रा वाले, निष्कपट पद्मचन्द्रसूरि को उनके पाट पर विराजित किया गया।
उनके पाट पर विजय को प्राप्त करने वाले विजयचन्द्रसूरि हुए। तत्पश्चात् उनके पाट पर गणाधिप अभयदेवसूरि (द्वितीय) सुशोभित हुए। अभयदेवसूरि के पाट पर समृद्धशाली देवभद्रसूरि हुए। तत्पश्चात् उनके पाट पर महानन्द को प्रदान करने वाले तथा संघ की अभिवृद्धि करने वाले प्रभानंदसूरि हुए। प्रभानंदसूरि के पाट पर वैभव को प्रदान करने वाले गणाधीश श्रीचन्द्रसूरि हुए। उनके पाट पर जिनभद्रसूरि हुए, जिन्होंने लोगों का कल्याण किया। जिनभद्रसूरि के पाट पर जगत् में श्रेष्ठता को प्राप्त जगत्- तिलकसूरि हुए, जिन्होंने अपनी सिद्धि एवं तप-समृद्धि से भूतल को प्रकाशित किया। उनके पाट पर चंद्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल गुणों वाले गुणचन्द्रसूरि हुए। उनके पाट पर प्रख्यात श्री अभयेदवसूरि (तृतीय) सुशोभित हुए।
तत्पश्चात् उनके पाट पर वर्तमान में अपने सद्गुणों से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात, जय एवं आनंद के आश्रयस्थल, दुर्वादियों के मद
का नाश करने वाले, पापकर्मों को क्षय करने वाले, सर्व देशों में विचरण करने वाले गणनायक जयानन्दसूरि हुए। जयानन्दसूरि के पाट पर स्वगच्छ को प्रशासित करने वाले अभयदेवसूरि (तृतीय) के शिष्य प्रशान्त एवं बुद्धिमान् - ऐसे श्री वर्धमानसूरि हुए। जिन्होंने आगम के अर्थ को देखकर तथा श्रीमद् आवश्यकसूत्र में जो कहा गया है - ऐसे तथा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर के शाखा के आचार का विचार करके जनहितार्थ सर्वसाधुओं के आचार की व्याख्या करने के लिए तथा कर्मों का क्षय करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की है। कल्पवृक्ष की
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