Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 466
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 422 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि उपमा से उपमित अनंतपाल राजा के राज्य में जालंधर नगर के नन्दनवन में विक्रम संवत् १४६८ में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में उन्होंने इस ग्रंथ को पूर्ण किया। श्रीमद् जयानंदसूरि के शिष्य तेजकीर्ति मुनि हुए, जिन्होंने लेखन-कार्य में हमेशा सहयोग प्रदान किया। अज्ञानतावश तथा आगम के अर्थ को सम्यक् प्रकार से नहीं जानने के कारण इस ग्रन्थ में जहाँ-कहीं (कहीं पर भी) कुछ अशुद्ध लिखा हो, तो उसके लिए मैं "मिथ्या मे दुष्कृतं" देता हूँ, अर्थात् मेरा वह दुष्कृतरूप पाप मिथ्या हो। जो असत्य (गलत) कहा गया है, उसका निन्दा के भाव से रहित होकर मुनीश्वर शोधन करें तथा जो सत्य (सही) कहा गया है, उसकी अनुमोदना करें एवं शिष्यों को पढ़ाएं। जब तक पृथ्वी, पर्वत, चन्द्र, सूर्य एवं मेरुपर्वत इस लोक को विभूषित करते रहें, तब तक सुसाधु-समुदाय द्वारा अधीत यह ग्रन्थ उनके हृदय को आनंद प्रदान करे। - इति शास्त्रकार प्रशस्ति संपूर्ण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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