Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 460
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) ___416 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि में व्यभिचार-दोष (उन गुणों का अन्य पदार्थों में भी होना) दिखलाई देता हैं। अतः जैनदर्शन का स्याद्वाद-सिद्धान्त अप्रमाण नहीं है, अर्थात् स्याद्वाद-सिद्धांत प्रमाणरूप है, इसलिए शास्त्रज्ञाता विद्वानों द्वारा स्याद्वाद के प्रति मत्सरभाव का परित्याग किया जाना चाहिए। अन्यान्य दर्शनों की पदार्थ निरूपण की सम्यक् मान्यताएँ हैं, वे स्याद्वाद सिद्धान्त में उसी प्रकार समाहित होती हैं, जैसे नदियाँ सागर में समाहित हो जाती हैं, इसलिए स्याद्वाद का आश्रय लेकर राग एवं द्वेष - दोनों से रहित होकर सभी दार्शनिक सिद्धान्तों की न तो निन्दा करें और न उनकी स्तुति करें। स्याद्वाद का आश्रय लेकर अपने हृदय में सम्यक् ज्ञान एवं दर्शन को धारण करे। स्याद्वाद में समन्वित यह जैन- दर्शन मिथ्यात्व से रहित हैं और क्षायिकसम्यक्त्व से युक्त अनेकान्त-सिद्धांत के प्रति आस्था, तीव्र कषायों का अभाव तथा ऐन्द्रिक विषयों का उपशम, अर्थात् विषयों के प्रति विराग ही सम्यक्दर्शन है। विषय-भोगों के प्रति आसक्ति एवं दुराग्रह को सम्यक्त्व नहीं कहा जाता, वह तो मिथ्यादर्शन है, इसलिए मोक्ष की इच्छा वाले साधक (श्रावक) को आग्रह का परित्याग करके और राग-द्वेष - दोनों से विरत होकर परिशुद्ध मन से सम्यकदर्शन को ग्रहण करना चाहिए। यह जो सम्यक्चारित्र है, इसकी उपलब्धि न तो सिर मुंडाने से, अथवा केशलोचन से होती है और न ही वस्त्रपरित्याग करने से, अर्थात् वस्त्रादि के नहीं पहनने और जटाओं के बांधने से होती है। इसी प्रकार सम्यक्चारित्र न तो सफेद अथवा लाल वस्त्रों के परिधारण करने में और न वृक्ष की छाल धारण में है, न वह भिक्षा में प्राप्त भोजनादि से जीविका चलाने में है और न अग्नि, जल आदि द्वारा अपने शरीर को कष्ट देने में है। प्राणीमात्र के प्रति जो दया भाव है तथा जो हित-मित सत्य वाणी है, इसी प्रकार मनोभावों में जो निःस्पृहता है और जो कायिक, वाचिक एवं मानसिक - तीनों प्रकार से ब्रह्मचर्य का पालन है, वही सम्यक्-चारित्र है। शत्रु और मित्र में, संसार और मोक्ष में, स्वर्ण और पाषाण में, वन और नगर में, घर या वृक्ष की छाया में, तृण और वनिता या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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