Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 458
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 414 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि निकलकर उसे विभाजित कर देता है, तो फिर विविध विचारधाराओं द्वारा दर्शन के क्षेत्र में वैविध्य क्यों नहीं होगा, अर्थात् विभिन्न विचारधाराओं द्वारा चिन्तन के क्षेत्र में विविधता उत्पन्न हुई। जिस प्रकार रथ के विभिन्न अंगों (पहियों आदि) में नाम की विभिन्नता देखी जाती है और उनके आधार पर भेद किया जाता है, किन्तु दूसरी ओर रथ का ऐक्य भी दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार इन सांसारिक दृश्य-पदार्थों की भिन्नता भी परिलक्षित होती है, किन्तु उनमें एकत्व भी देखा जाता है। जिस प्रकार एक ही तालाब का पानी अनेक मार्गों से आए हुए प्राणियों द्वारा पीया जाता है, उसी प्रकार एक ही तत्त्व की व्याख्याएँ (दार्शनिक विवेचनाएँ) विभिन्न दार्शनिकों द्वारा अलग-अलग की जाती है। उनकी विवेचना का श्रवण, पठन, मनन आदि करके उनके सिद्धांतों के प्रति हृदय में आस्था जाग्रत होती है। विद्वान् आचार्यों द्वारा जिस तार्किक-बुद्धि द्वारा उन दार्शनिक-सिद्धान्तों का खण्डन किया जाता है, उसी तार्किक-बुद्धि से उनका मंडन भी किया जाता है और इस प्रकार उनकी दार्शनिक-सिद्धांतों या विचारधाराओं की प्रामाणिकता, अथवा अप्रमाणिकता का निणर्य भी किया जाता है, अतः क्या सत्य है ? अथवा क्या असत्य है ? यह निश्चय नहीं किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप अन्यान्य दर्शनों के प्रति जिज्ञासुओं की तत्त्वजिज्ञासा बढ़ती है, इसलिए शास्त्र में यह कहा गया है या इसकी यह व्याख्या ही समीचीन (श्रेष्ठ) है - ऐसा मानकर उन जिज्ञासु श्रोताओं या पाठकों द्वारा उसे स्वीकार कर लिया जाता है। देहधारी जीवात्मा बिना केवलज्ञान के प्रकाश के उन तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान नहीं कर पाते है, अर्थात् वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते है, इसीलिए स्याद्वाद-सिद्धान्त की दृष्टि से किया गया विशिष्ट विवेचन प्राणीमात्र के लिए मोक्ष का हेतु माना गया हैं। जहाँ-जहाँ एकान्तवाद हैं, वहाँ-वहाँ जिज्ञासु प्राणियों की मूढ़ता ही देखी जाती है। अनेकान्त या स्याद्वाद के आधार पर तत्त्वों का वास्तविक ज्ञान ही मानव-बुद्धि को सम्यक् रूप से दुराग्रह से रहित बनाता है। बुद्धिमान् आचार्यों या मुनियों द्वारा कहा गया अप्रामाणिक लगने वाला कथन भी स्याद्वाद की दृष्टि से प्रामाणिक हो सकता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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