Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 457
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 413 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि संदर्भ में स्याद्वाद की योजना करना चाहिए, न कि अन्य किसी संदर्भ में। इस प्रकार तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में ही स्याद्वाद के अनुसरण का औचित्य है। जगत् के सभी जीव अपने-अपने कर्म के अनुसार जन्म धारण करते हैं तथा अपने कमों से प्रेरित होकर स्व-स्व प्रकृति के भागी होते हैं, अर्थात् विभिन्न प्रकृतियों को प्राप्त करते है। उनके आधार पर ही इन्द्रियों के विविध विषयों में उनकी भिन्न-भिन्न रुचि होती हैं एवं उनके मत और धर्म आदि भी विविध होते है। ज्ञानदृष्टि से विचार करने पर यह संसार विविध रुचियों वाला है। उन विविध दृष्टियों को प्रवादों में अन्तर्भूत किया जाता है, अतः इस सम्बन्ध में स्याद्वाद-सिद्धांत का आधार लेकर ही तत्त्व का विचार करना चाहिए। अपूर्ण ज्ञान की स्थिति में अन्य कोई विकल्प नहीं देखा जाता है। इस प्रकार षट्दर्शनों के अन्तर्गत अनेक मत प्रत्यक्ष आदि प्रमाण-समूहों द्वारा प्रस्थापित और खण्डित किए गए हैं। वे सभी मत तत्त्वपूर्वक विमर्शनीय हैं- ऐसा भी प्रतीत नहीं होता है। उनका विमर्शन, द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से अलग-अलग है। उन मतों का हेतु एवं दृष्टान्तों द्वारा खण्डन किया गया है। उनके पक्ष में कोई प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है, इसलिए उनकी प्रामाणिकता का विशिष्ट निर्णय स्याद्वाद-सिद्धान्त के आचार पर किया जाना चाहिए। जिस प्रकार चेतन देहधारियों की अनेक इच्छाएँ (मानसिक, अथवा बौद्धिक विचारधाराएँ) होती है, उसी प्रकार विभिन्न मतों का स्याद्वाद की दृष्टि से स्थापन या प्रतिपादन क्यों नहीं किया जाता। अचेतन जड़तत्त्व और चेतन जीवतत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न स्थापनाएँ तथा मान्यताएँ हैं और उनका विविध दृष्टियों से खण्डन भी किया गया है, अर्थात् जीव और अजीव तत्त्वों का विविध दृष्टियों से प्रस्थापन और खण्डन हुआ है। दार्शनिक-मत विभिन्नता और सिद्धान्त-प्रतिपादन भिन्नता परिलक्षित होती है। प्राचीन ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से संसार के स्वरूप की प्रस्थापना की है, इसलिए लोक में विश्व के स्वरूप की विवेचना के सन्दर्भ में अनेक प्रकार के मत प्रचलित हैं। जिस प्रकार एक भी पर्वत भूमि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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