Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 461
________________ आचारदिनकर (खण्ड- ४) 417 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि षण्ड पुरुषादि में, विष और अमृत में, राजा और रंक (गरीब) में, सज्जन और दुर्जन में, बालिश ( मूर्ख) और बुद्धिमान में, चन्दनादि और अग्नि में जो समत्वबुद्धि है तथा संसार के सभी प्राणियों के प्रति अद्वेष का भाव है, वही सम्यक्चारित्र है । स्वयं की आलोचना और अन्यों के प्रति निराकांक्षता सभी जीवों के कल्याण की भावना तथा राग-द्वेष का अभाव ही सम्यक्चारित्र है । विषयों के प्रति अत्यन्त प्रगाढ़ उपशमभाव और पर पदार्थों में अनासक्ति, भय, शोक, जुगुप्सा आदि का अभाव तथा परमऋजुता ( सरलता ) यही सम्यक्चारित्र के लक्षण हैं। क्षमा, निर्मोहत्व, निर्लिप्त मन आदि सभी सद्गुण सम्यक्चारित्र कहलाते है और यह सम्यक्चारित्र मोक्ष - प्राप्ति का सुगम मार्ग है । साधक चाहे वह जटाधारी हो, अथवा मुण्डन किया हुआ हो, सद्गृहस्थ आर्य हो अथवा म्लेच्छ हो, वह इस सम्यक्चारित्र का पालन कर निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र - ये त्रिरत्न ही श्रेष्ठ मोक्षमार्ग माने गए हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कोई भी तथाकथित मोक्षमार्ग के समीचीन नहीं है। मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ इन चारों भावों से वासित चित्त, अथवा इनमें से किसी एक से वासित चित्त ही मोक्ष की प्राप्ति कराने में सक्षम होता है । - समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर प्राप्त होने वाला यह मोक्ष विशुद्ध आत्मा के ज्ञान के फलस्वरूप ही प्राप्त होता है और वह आत्मबोध ध्यानसाध्य है तथा यह ध्यान आत्मानुभूति के लिए ही होता है । साम्यभाव, अर्थात् समभाव या समता के बिना ध्यान नहीं होता है और ध्यान के अभाव में समत्व फलदायी नहीं हो सकता है । साम्यभाव के बिना स्व-संवेदन नहीं होता है, इसीलिए ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकार मनुष्य ध्यान के आश्रय से समाधि को प्राप्त कर शिवपद, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । समाधि के बिना अत्यन्त कठिन तपस्याओं (देहदण्डन) और आचरणीय का आचरण करके भी मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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