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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
अतः संसार के मनुष्यों में स्याद्वाद - सिद्धान्त ही विश्वसनीय प्रतीत होता है, क्योंकि तीनों लोकों के सभी पदार्थ अनेक धर्मात्मक ( विविध प्रकार के स्वभाव वाले) हैं। पदार्थों के स्वरूप के प्रति जो संशय है, वह भी उन पदार्थों की अनेक धर्मात्मकता के कारण ही है, इसी कारण सभी वस्तुओं के तत्त्वज्ञान हेतु स्याद्वाद - सिद्धान्त ही प्रमाण माना जाता है। सूर्य का अस्त होना ( अन्धकार से ग्रसित होना), चन्द्रमा की निष्ठुरता, जहर की जीवन दायिकता तथा तत्काल प्राणनाश करने का सामर्थ्य, पृथ्वी का अचल होने पर भी स्खलन, अग्नि में दाहकता का गुण होने पर भी उसका शांत हो जाना, घी का ज्वर (रोग) - शमन, मरुस्थल में जल का भण्डार होने पर भी कभी जलविहीन हो जाना, मुनि का क्रोधी हो जाना, पक्षियों का उन्मुक्त होते हुए बन्धन में होना और शंख का श्वेत होने पर भी रक्त रंग का हो जाना, वायु में स्थिरता, जल में तरलत्व होने पर भी घनत्व ( ठोस होने का भाव ), सोने में ( चमक होने पर भी ) मलिनत्व, वज्रों में ( अति कठोर होने पर भी ) चूर्णता ( चूर-चूर हो जाने की संभावना, मृत व्यक्ति में पुनः प्राण आ जाना ( उसका पुनर्जीवित होना), बादल का सदा जल से युक्त होना, सूख जाना, बर्फ में ठण्डापन होने पर भी जलाने की क्षमता इस प्रकार के अनेक दृष्टान्तों द्वारा वस्तु की अनेकधर्मता सिद्ध होती है । इस कारण स्याद्वाद - सिद्धांत निश्चित रूप से मानव हृदय में प्रमाणरूप में स्वीकृत हो जाता है ।
जब तक प्राणियों को ( देहधारियों को ) केवल्यज्ञान नहीं होता, तब तक कभी भी ज्ञान का विचार नहीं करना चाहिए । स्याद्वाद में जो स्वच्छ एवं शीतल प्रकाश वाला है, वही प्रमाण माना जाता है । यह जो अनेकान्त-सिद्धान्त है, वही उत्तम ज्ञान है। इसके अतिरिक्त विद्वानों का वाणी-वैदुष्य अज्ञान ही कहा गया है, अर्थात् स्याद्वाद के अतिरिक्त शेष सभी उनका वाक् चापल्य मात्र ही है । स्याद्वादसम्मत कथन सभी को विश्वसनीय होता है । एकान्तवाद का कथन भी ( अन्य पदार्थों में भी उन गुणों के पाए जाने से) व्यभिचारयुक्त माना गया है। नमन करने में भी अहंकार की सम्भावना, तपस्यादि कार्य में भी भोगाकांक्षा का होना, उसी प्रकार ओस एवं पानी में अच्छे उपकरणों
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