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आचारदिनकर (खण्ड-४)
204 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करूँगा। वे आगार ये हैं - श्वास लेने से, श्वास छोड़ने से, खांसी आने से, छींक आने से, जम्हाई लेने से, डकार आने से, अपानवायु सरकने से, चक्कर आने से, पित्त-विकार के कारण मूर्छा आने से, सूक्ष्म अंग संचार होने से, अर्थात् रोम खड़े होने से, कम्पारी आदि होने से, सूक्ष्म रीति से शरीर में श्लेष्म आदि का संचार होने से, सूक्ष्मदृष्टिसंचार, अर्थात् नेत्रस्फुरण आदि होने से - ये कारण उपस्थित होने से जो काय-व्यापार हों, उससे मेरा कायोत्सर्ग भंग न हो - ऐसे ज्ञान तथा सावधानी के साथ खड़ा रहकर वाणी-व्यापार सर्वथा बन्द करता हूँ तथा चित्त को प्रस्तुत शुभध्यान में जोड़ता हूँ और जब तक 'णमो अरिहंताणं', अर्थात् अरिहंतों को नमस्कार हो - यह पद बोलकर कायोत्सर्ग पूर्ण न करूं, तब तक अपनी काया को पाप- कों से हटाता हूँ। विशिष्टार्थ -
छींक आदि तथा मूर्छा आदि के आने पर मुखवस्त्रिका द्वारा मुख को ढकने में, अथवा नीचे बैठने पर भी कायोत्सर्ग अभग्न ही होता है, अन्यथा खांसी या जंभाई लेते समय मुख खुला होने पर, अथवा मूर्छा आदि के कारण नीचे गिर जाने पर संयम एवं आत्मा की (संयमात्मा) विराधना होती है।
अब कायोत्सर्ग का भंग करने पर भी कायोत्सर्ग अभग्न रहता है, उन अपवादों को बताते हैं -
१. वसति अथवा समीप में अग्नि का उपद्रव होने पर २. पंचेन्द्रिय जीव आड़े उतरें, उस समय स्वयं सरककर स्थापनाचार्य एवं उपकरणों के आड़ नहीं पड़ने दें ३. चोर आदि उपद्रव होने पर ४. मल, श्लेष्म, वात आदि से क्षुभित होने पर ५. सर्प- सिंहादि का संकट आने पर तथा ६. कदाचित् यति या श्रावक आदि को सर्प या बिच्छु डस रहा हो, उस समय इन सभी आगारों से कायोत्सर्ग का भग्न करने पर भी कायोत्सर्ग अभग्न ही रहता है।
आदि शब्द से यहाँ उक्त आगारों के अतिरिक्त विद्युतपात्, मेघसंपात (वर्षा के समय), स्वचक्र अथवा परचक्र, राजा आदि का भय
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