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आचारदिनकर (खण्ड- -8)
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इन रसत्याग तपों में भी पूर्व - पूर्व की अपेक्षा उत्तर उत्कृष्ट जानने चाहिए।
बियासन, एकासन, संख्या वाले कवल, दत्ति, तिविहार, उपवास और निर्जल चौविहार उपवास इन वृत्तिसंक्षेप तपों में भी पूर्व पूर्व की अपेक्षा से उत्तरोत्तर तप उत्कृष्ट बताया गया है।
तप के प्रारंभ में तप की निर्विघ्न समाप्ति के लिए श्री जिनेश्वर की अष्टप्रकारी पूजा करनी चाहिए तथा विधिपूर्वक पौष्टिककर्म करना चाहिए । पौष्टिककर्म की विधि इस प्रकार है
नवग्रह, दस दिक्पाल और यक्षों का द्रव्य, नैवेद्य और उत्तम फलों से बृहत् पूजन किया जाता है, उसे पौष्टिककर्म कहते हैं
तप के प्रारंभ में गुरु को ( साधु को ) निर्दोष पुस्तक, वस्त्र, पात्र, और अन्न का दान देना चाहिए । संघपूजा करनी चाहिए तथा क्षेत्रदेवता और पुरदेवता की भी पूजा करनी चाहिए ।
योगवहन, उपधानवहन एवं प्रतिमावहन में मुनीन्द्रों द्वारा बताई गई विधि के अनुसार नंदी की स्थापना अवश्य करनी चाहिए एवं अन्य तपों में शक्रस्तव बोलकर आवश्यकादि की वाचना की विधि करे ।
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
उत्तरतप
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केवल तप ही शुद्ध है, किन्तु वह तप यदि उद्यापनसहित हो, तो उसका महत्त्व विशिष्ट होता है, क्योंकि गाय के गुणों के कारण ही दूध मनोहर है और वह दूध जब द्राक्ष और शक्कर के चूर्ण के साथ मिल जाता है, तो वह अमृत के समान बन जाता है
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जिस प्रकार दोहन पूर्ण होने से वृक्ष विशेष रूप से सुशोभित होता है, अर्थात् फल देता है और जिस प्रकार से श्रेष्ठ रसवाले भोजन से शरीर विशेष शोभा को प्राप्त करता है, उसी प्रकार तप भी विधिपूर्वक उद्यापन से विशेष शोभा को प्राप्त करता है, अर्थात् विशेष फल देता है
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सभी प्रकार के उपधान - तप, यति की बारह प्रतिमाओं के तप, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के सिद्धांत-तप, योग- तप, इन्द्रियजय-तप, कषायजय-तप, योगशुद्धि-तप, धर्मचक्र-तप, दो अष्टानिका - तप, कर्मसूदन- तप इस प्रकार ये सब तप जिन के द्वारा भाषित हैं ।
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