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आचारदिनकर (खण्ड-४)
399 399 पानी
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि शुचिकर्म-संस्कार - शुचिकर्म नामक संस्कार, अर्थात् स्नानादि कर्म द्वारा प्रसूति होने के पश्चात् बहने वाले दूषित रक्त से उत्पन्न दोषों का उन्मूलन किया जाता है। विप्रादि चारों वर्ण के शौच के लिए अधिकाधिक दिन की जो संख्या बताई गई है, उसका उद्देश्य उच्च एवं नीच जाति के क्रम को अभिव्यक्त करना है। - यह शुचिकर्म-संस्कार का सार है।
___ नामकरण-संस्कार - जो नामकरण-संस्कार है, वह प्रेषण एवं आह्वान का हेतु है। व्यक्ति को नाम के बिना क्या कहकर बुलाएंगे। शिशु के भाग्य, अर्थात् भावी जीवन को जानने के लिए लग्न एक सम्यक् साधन है। नामाक्षरों के बिना भविष्य को जानने का अन्य कोई उपाय नहीं है। इसमें गृहस्थों द्वारा साधुओं के उपाश्रय में जाकर मंडलीपूजा करना चाहिए। वह विधान उनके सान्निध्य में रहे हुए देवों को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। - यह नामकरण-संस्कार का सार है।
अन्नप्राशन-संस्कार - अन्नप्राशन-संस्कार भी अन्नाहार प्रारम्भ के उद्देश्य से किया जाता है। शुभ मुहूर्त में ग्रहण किया गया आहार देह को आरोग्य प्रदान करता है। - यह अन्नप्राशन-संस्कार का सार है।
कर्णवेध-संस्कार - अन्नप्राशन-संस्कार के निर्यास के पश्चात् कर्णवेध-संस्कार का क्रम आता है। यहाँ मुद्रित प्रति में सार्द्धश्लोक लुप्त होने की सूचना दी गई है। सम्भवतः उसमें कर्णवेध संस्कार की उपयोगिता कथित होगी, अतः उनतीसवें श्लोक के उत्तरार्द्ध में कहा गया है - वह कर्णवेध-संस्कार भी विद्वानों द्वारा क्यों नहीं प्रशंसनीय होगा ?
चौलकर्म (चूड़ाकरण)-संस्कार - केश उतारे बिना व्रतबन्धादि-कर्म नहीं होते हैं। संसार-परिभ्रमणरूपी इस विपरीत वृक्ष के उन्मूलन हेतु यह संस्कार किया जाता है। ज्ञातव्य है कि जहाँ सामान्य वृक्षों की जड़े नीचे होती हैं, वहाँ संसाररूपी वृक्ष की जड़ें ऊपर की तरफ कही गई हैं, इसलिए संसार को विपरीत वृक्ष कहा गया है। जैसे वृक्ष को निर्मूल करने के लिए उसकी जड़ों को निर्मूल
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