Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 446
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 402 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि वैवाहिक-कर्म व्यक्तियों के समक्ष इसीलिए किया जाता है, ताकि निन्दा आदि से बचा जा सके, साथ ही वह सम्बन्ध विहित माना जा सके, इसीलिए जन-उपस्थिति में वैवाहिक-विधि सम्पन्न की जाती है। यह वैवाहिककर्म गुप्त रूप से किए जाने पर लोग इसे अनुचित कहते हैं, इसीलिए यह संस्कार उत्सवपूर्वक जनता के समक्ष किया जाता है। अन्य गोत्र में उत्पन्न स्त्री के साथ सम्बन्ध ग्रन्थिबन्ध, अर्थात् विवाह-सम्बन्ध होने पर ही उनमें परस्पर राग आदि (प्रेम-सम्बन्ध) का विचार करना अपेक्षित होता है, उसके अभाव में नहीं, किन्तु सम्बन्धियों के पारस्परिक कलह, कटुता आदि होने पर विवाह हेतु वार्तालाप उचित नहीं होता है, इसीलिए अन्य स्वजनों द्वारा वधू एवं वर के सम्मिलन हेतु किया गया यह आयोजन गृहस्थवास के लिए विहित माना जाता है। दम्पत्ति के समान कर्म हेतु समान कुल तथा समान शील अभीष्ट है, क्योंकि असमान कर्म करने वाले दम्पत्ति का गृहस्थ-जीवन प्रशस्त नहीं होता है। समान कुल होने से भोजनादि में, वेशभूषा आदि में तथा परस्पर वार्तालाप एवं साथ-साथ कर्म-सम्पादन में किसी प्रकार के दोष उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रहती है। दोनों पक्षों के माता-पिता के समक्ष दम्पत्ति का विवाह-सम्बन्ध निर्धारण अभीष्ट या वांछनीय माना जाता है। सभी व्यक्तियों के समक्ष प्रत्यक्ष रूप में सम्पन्न विवाह-संस्कार धार्मिक कहा जाता है। जो विवाह दम्पत्ति के माता-पिता की अनुपस्थिति एवं उनकी अनुमति के बिना तथा हठपूर्वक गुप्त रूप से सम्पन्न किया जाता है - ऐसा विवाह पाप-विवाह, अर्थात् अधार्मिक कहलाता है। चोरी से (गुप्त रूप से), हठपूर्वक एवं लोगों को सन्तापित करके जो वैवाहिक-सम्बन्ध किया जाता है, वह भी पापयुक्त माना जाता है, इसके विपरीत माता-पिता एवं परिजनों की उपस्थिति में सम्पन्न वैवाहिक-कर्म धार्मिक माना जाता है। तेल, उबटन आदि लगाकर किया गया स्नान शोभा के लिए ही होता है। इसकी व्याख्या जिस प्रकार की गई, उस प्रकार से, अथवा कुल की आचार-परम्परा के अनुसार इसे सम्पादित किया जाना चाहिए। इस अधोगामी (अवसर्पिणी)- काल में ऋषभदेव द्वारा निर्दिष्ट इस आचार-पद्धति को सांसारिक कहा गया है। यह विधि आदि अर्हत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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