Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 453
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 409 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्रतिमा के लिए नौ कोण का आसन बनाते हैं, क्योंकि पूज्य भगवान् सिद्धांतरूप में नौ तत्त्वों के आधर पर ही स्थित हैं। उनके पार्श्व में स्थित अन्य सभी देवी-देवताओं की जो पूजा की जाती है, वह उनको प्रसन्न करने हेतु की जाती है तथा बिम्ब के प्रभाव को बढ़ाने वाली होती है। फल आदि के रूप में जिन वस्तुओं की बलि दी जाती है, अर्थात् उन्हें समर्पित की जाती है, वे भी उन देवों को रुचिकर होती हैं। यह देवगृह की प्रतिष्ठा का सार है। जिन वस्तुओं की अधिवासना की जाती है, वे देवत्व को प्राप्त कर लेती हैं। स्नात्रविधि से परमात्मा की जो पूजा की जाती है, वह शुभध्यान तथा जन्म-कल्याणक की प्राचीन परम्परा के निर्वाह हेतु की जाती है। - यह प्रतिष्ठा-विधि का सार है। शान्तिककर्म-संस्कार - शान्तिककर्म विघ्नों के उपशमन (शान्ति) के लिए बताया गया है। इसमें चतुर्निकाय के देवों की पूजा करके उनको प्रसन्न किया जाता है, उनके प्रसन्न होने से सर्व विघ्न का विनाश होता है। शान्तिककर्म करने से अनिष्टकारी उपद्रव एवं दावानल भी शान्त हो जाते हैं। जिनस्नात्र-विधि से प्राप्त जल से सर्व दोषों का निवारण होता है तथा शान्तिपाठ के उद्घोष से दुष्ट, अर्थात् अनिष्टकारी शक्तियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं। - यह शान्तिककर्म-संस्कार का सार है। पौष्टिककर्म-संस्कार - सर्व कार्यों के आरम्भ में किया गया पौष्टिककर्म पुष्टि को प्रदान करता है। देवों की सम्यक् प्रकार से पूजा करने से नियत (लक्षित) कार्य की सिद्धि होती है। - यह पौष्टिककर्म-संस्कार का सार है। बलिकर्म-संस्कार - अमुक्त देवों को संतुष्ट करने के लिए तथा मंगल हेतु बलिकर्म-संस्कार किया जाता है। इसके करने से कर्त्ता के चित्त को शान्ति मिलती है। - यह बलिकर्म-संस्कार का सार है। प्रायश्चित्त-संस्कार - आत्मा प्रमाद के वशीभूत होकर जिन अपराधों को करती है, उनकी शुद्धि प्रायश्चित्त करने से होती है, किंतु अहंकारपूर्वक किए गए पापों की शुद्धि प्रायश्चित्त से नहीं होती है। जिस प्रकार लोक-व्यवहार में किए गए दुराचारों की शुद्धि दण्ड आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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