Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 448
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 404 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सम्यक् श्रद्धा है । व्रत का उच्चारण, अर्थात् नियम का ग्रहण सर्वपापों से निवृत्तरूप होता है। श्रावक प्रतिमाओं का उद्वहन करके उन-उन में वर्णित नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करता है । नमस्कार आदि उपधानों में कर्मक्षयार्थ एवं सूत्रों के पाठों के अध्ययनार्थ जो तप आचरणीय किया जाता है, वह तप प्रशस्त माना गया है। माला - आरोपण की जो क्रिया है, वह उन सभी व्रतों के उद्यापनरूप है, साथ ही वह माला तीर्थंकर परमात्मा की श्रेष्ठ मुद्रारूप है। परिग्रह-परिमाण के स्मरणार्थ तथा श्रावकों के व्रतों के पालन हेतु टिप्पणक तैयार किया जाता है। अर्हत् एवं सिद्धों की पूजा उनके तर्पण के लिए नहीं, वरन् शुभध्यान के लिए की जाती है तथा दिक्पालों एवं ग्रहों की जो पूजा की जाती है, वह उनके संतर्पण या सन्तुष्टि के लिए की जाती है। यह व्रतारोपण - संस्कार का सार है । अन्त्य-संस्कार अन्त्य - संस्कार, अर्थात् संल्लेखना - ग्रहण आत्मशान्ति एवं अन्तिम समय में शुभध्यान के लिए किया जाता है, क्योंकि अन्तिम समय में जीव की जैसी मति होती है, उसकी गति ( परभव) वैसी ही होती है। शव की दहन - क्रिया देह संस्कार के प्रयोजन से की जाती है । शव की देह पर जो वस्त्रादि डाले जाते हैं, वे उसे संस्कार के योग्य बनाते हैं। इस प्रकार अन्त्य - क्रियाएँ तथा तत् निमित्त की जाने वाली स्नात्रपूजा आदि मृतात्मा के शुभत्व की प्राप्ति, सनाथता के आख्यापन एवं पुण्य का संचय करने के उद्देश्य से की जाती है यह अन्त्य - संस्कार का सार है । - ब्रह्मचर्यव्रत - संस्कार - सर्वप्रथम यति- आचार में जो ब्रह्मचर्यव्रत बताया गया है, उसका उद्देश्य बताते हैं । ब्रह्मचर्यव्रत का ग्रहण काम - भोगों से विरक्ति के अभ्यास हेतु एवं आत्मसंयम के परीक्षणार्थ किया जाता है । ब्रह्मचर्यव्रत सभी व्रतों का मूल है । ब्रह्मचर्यव्रत के भग्न होने से अन्य सभी व्रतों का पालन भी निरर्थक हो जाता है, क्योंकि कर्मों के आस्रव का निरोध नहीं होता है। अब्रह्मचर्य की स्थिति में व्यक्ति ऐन्द्रिक विषयों के काम-भोगों में गृद्ध बना रहता है तथा संभोग की क्रिया में स्त्री की आवश्यकता होती है । स्त्री परिग्रहरूप होती है । स्त्री परिग्रहरूप होने से वह आरम्भ का भी हेतु है और www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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