Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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आचारदिनकर (खण्ड-४) 393 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि पुनर्वसु की बिलाव, पुष्य की मेष, आश्लेषा की बिलाव, मघा की मूषक, पू.फाल्गुनी की मूषक, उ.फाल्गुनी की गौ, हस्त की महिष, चित्रा की व्याघ्र, स्वाति की महिष, विशाखा की व्याघ्र, अनुराधा की हरिण, ज्येष्ठा की हरिण, मूला की कुत्ता, पूर्वाषाढ़ा की वानर, अभिजित् की नकुल (नेवला), उत्तराषाढ़ा की नकुल (नेवला), श्रवण की वानर, धनिष्ठा की सिंह, शतभिषा की अश्व, पू.भाद्रपदा की सिंह, उ.भाद्रपदा की गौ, रेवती की कुंजर (हाथी) योनि हैं।
गाय-व्याघ्र, गज-सिंह, अश्व-भैंस, सर्प-नेवला, वानर-अज, मार्जार-मूषक एवं हरिण-श्वान (इन सब योनियों का परस्पर वैर है), अतः लोक-व्यवहार, जैसे - दंपत्ति (पति-पत्नी) नृप-सेवक, गुरु-शिष्य आदि के नामों से तथा अन्य नामकरणों में भी हमेशा परस्पर विरोधी इन योनियों का वर्जन करना चाहिए। 'अ' वर्ग (समस्त स्वर), 'क' वर्ग (क,ख,ग,घ,ङ्), 'च' वर्ग (च,छ,ज,झ,ञ), 'ट' वर्ग (ट,ठ,ड,ढ,ण), 'त' वर्ग (त,थ,द,ध,न), 'प' वर्ग (प,फ,ब,भ,म), 'य' वर्ग (य,र,ल,व), 'श' वर्ग (श,ष,स,ह) - इन समस्त अक्षरों को आठ वर्गों में बाँटा गया है। इन वर्गों के स्वामी क्रमशः गरुड़, बिलाव, सिंह, कुत्ता, सर्प, चूहा, मृग और भेड़ हैं। इनका भी परस्पर वैर पूर्ववत् ही जानें (अर्थात् ये अपने से पाँचवें के शत्रु हैं)। यदि स्वामी एवं नौकर के नाम के प्रथम अक्षर भक्ष्य एवं भक्षक वर्ग के हों, तो शुभ नहीं है। यदि समान वर्ग, अथवा शत्रु भिन्न वर्ग स्वामी-सेवक के जन्म-नक्षत्र हों, तो शुभकारक हैं।'
नक्षत्रों के गण -
हस्त, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशीर्ष, अश्विनी, पुष्य एवं रेवती - इन नक्षत्रों का गण देव है। पूर्वात्रय ( पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाभाद्रपद ), उत्तरात्रय (उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपद), भरणी, आर्द्रा एवं रोहिणी - इन नक्षत्रों का गण
' मूलग्रन्थ की उक्त पंक्तियों का अर्थ हमने मुहूर्तराज के अनुसार किया हैं। ग्रंथकार का इन पंक्तियों से क्या आशय रहा होगा, यह तो केवलिगम्य ही हैं।
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