Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 440
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 396 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि नामों में परिवर्तन नहीं होता है। अनेक हेतुओं से क्षत्रियों के नामों में पूर्वपद क्रमशः इस प्रकार होते हैं - पृथ्वी, विजय, विश्व, अब्द, गज, अश्व, पराक्रम, महा, युद्ध, वीर, दुर्धर, वल्लभ, बाहु, तेज, अनंत, कल्याण, प्रताप, गुण, भास्कर, देव, दानव, दुर्हत्क, सिंह, कन्दर्प, विष्णु (वेणु) - इन पूर्वपदों के साथ अनलिखित उत्तरपदों की योजना करने से क्षत्रियों के नाम बनते हैं। वे उत्तरपद इस प्रकार हैं - सिंह, सेन, देव, पाल, चन्द्र, सूर्य, अब्धि, शाल्यक, मल्ल, कोटीर, संघट्टा, दुःसह, व्याघ्र, मण्डन, जन, उत, वर्म, विद्वेषि, हस्त, शस्त्र, कर आदि। इस प्रकार आदिपदों के साथ इन उत्तरपदों का संयोजन करने से क्षत्रियों के नाम बनते हैं। . वयोवृद्ध उत्तम पुरुषों के नामों के अनुसार भी क्षत्रियों के नाम होते हैं। वैश्य, शूद्र, एवं कारूओं के नाम जिस देश में, जिस प्रकार से प्रचलित हों, वैसे एक पदात्मक नाम रखना चाहिए। निम्न जाति के कर्मकारों के नाम भी निम्न जाति के वृक्षादि के नामों के आधार पर रखे जाते हैं। दूसरे शब्दों में हीन वस्तु के लिए प्रयुक्त एक पदात्मक नामों के आधार पर उनके नाम रखे जाते हैं। हस्ति, अश्व आदि पशुओं के नाम में भी जय शब्द जोड़ना चाहिए। इस प्रकार नामकरण करने से वह उत्तम कार्यों में तथा युद्ध में शत्रुओं पर जय का सूचक होता है। इस प्रकार पदारोपण-संस्कार में नामकरण सम्बन्धी विधि बताई गई है। पदारोपण की क्रिया में पूर्व में बताए गए अनुसार नाम दिए जाते हैं। पदारोपण-अधिकार में नामकरण की विधि सम्पूर्ण होती है। इस प्रकार वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के उभयधर्मस्तम्भ में पदारोपण-कीर्तन नामक यह चालीसवाँ उदय समाप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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