Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 436
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 392 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि होती है। देह-रक्षा करने से मुद्रा को कवच भी कहा जाता है। आच्छोटन आदि कर्म तथा दिग्बन्ध आदि कर्मों में तर्जनी-मुद्रा उस-उस प्रकार की चेष्टाओं के आधार पर होती है। उन-उन क्रियाओं के अन्तर्गत ही उन-उन मुद्राओं का विवेचन मनीषियों द्वारा किया गया है। समस्त मुद्राएँ शान्तिककर्म आदि कर्मों में बताई गई हैं। अपने-अपने विधि-विधानों के अन्तर्गत ये मुद्राएँ यति एवं गृहस्थ द्वारा की जाती हैं, इसलिए मुद्राएँ गृहस्थ एवं साधु - दोनों के लिए करणीय मानी गई हैं। इस प्रकार पदारोपणाधिकार में मुद्रा-कीर्तन नामक यह प्रकरण पूर्ण होता है। नामकरण-विधि - नामकरण की विधि इस प्रकार है - सर्व लोक की सर्व वस्तुओं का कोई न कोई नाम अवश्य होता है। इसी प्रकार सर्व जीवों, सर्व कार्यों एवं सर्व संयोजनों के भी नाम होते हैं। जिनमें शब्द, रूप, रस, स्पर्श एवं गंध समाहित हैं, वे सभी वस्तुएँ उनके प्रभाव से किसी नाम द्वारा ही जानी जाती हैं। शब्दशास्त्र में नाम तीन प्रकार के कहे गए हैं - १. रूढ़ नाम २. यौगिक नाम एवं ३. मिश्र (संयोगजन्य) नाम। शास्त्रों में शिष्य एवं सेवकों की जो नाम-संपत्ति बताई गई है, वह सुखदायिनी है तथा उससे विपरीत नाम-संपत्ति दुःखदायी है। जिन वस्तुओं के नाम स्वाभाविक रूप से एवं परम्परा से चले आ रहे हैं, उन वस्तुओं के नामों में देश, काल आदि भेद से कभी भी परिवर्तन नहीं करना चाहिए। प्राचीन समय में जैन साधु संस्था में भी मुनिपद या सूरिपद को प्राप्त करने पर भी मोक्षगामी व्यक्तियों के नामों में कोई परिवर्तन नहीं होता था, किन्तु वर्तमान में गच्छ की वृद्धि, महास्नेह एवं दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति हो - इस आशय से आचार्य एवं शिष्य के नामों में परिवर्तन किया जाता है, किन्तु इन कारणों से शिष्य या आचायों आदि का नामान्तर भी उनकी नाम-राशि के आधार पर ही किया जाता है। गुरु शिष्य के गुणों की प्रधानता को दृष्टिगत रखकर उसका नामकरण करते हैं। अश्विनी की योनि अश्व, भरणी की हाथी, कृतिका की मेष, रोहिणी की सर्प, मृगशीर्ष की सर्प, आर्द्रा की कुत्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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