________________
आचारदिनकर (खण्ड- ४)
390 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
२६. पाशमुद्रा - दोनों कनिष्ठिका एवं दोनों तर्जनी अंगुलियों को वज्राकृती करके दोनों मध्यमा एवं दोनों अनामिका अंगुलियों को वक्र करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे पाशमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा स्तम्भकारिणी है।
३०. खड्गमुद्रा - हाथ की अंगुलियों को मिलाकर, सीधी खड्गवत् रखने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे खड्गमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा विघ्न का नाश करने वाली है । ३१. कुन्तमुद्रा - दाएँ हाथ को मुष्टिबद्ध करके कर्ण के पार्श्व में धारण करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे कुन्तमुद्रा कहते हैं यह मुद्रा जनरक्षाकारी है ।
३२. वृक्षमुद्रा - दाईं भुजा को आकुंचित करके हथेली एवं अंगुलियों को प्रसारित करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे वृक्षमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा विष एवं जड़ता का हरण करने वाली है । ३३. शाल्मकी - मुद्रा दोनों बाहुओं को परस्पर लतासदृश वेष्टित करके हाथ की अंगुलियों को कंकती ( कंघा ) बनाने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे शाल्मकीमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा ज्ञान - प्रकाशिनी है ।
-
३४. कन्दुक- मुद्रा दाएँ हाथ को अधोमुख करके और अंगुलियों को बिना किसी आधार के स्थापित करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे कन्दुक - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा द्वेष का शमन करने वाली (विद्वेषणकारी ) है ।
३५. नागफण - मुद्रा - दाहिने हाथ की मिली हुई अंगुलियों को ऊपर उठाकर सर्पफण के समान कुछ मोड़ने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे नागफण - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा विष एवं जड़ता ( लूता ) का हरण करने वाली है ।
३६. मालामुद्रा - दाहिने हाथ की अंगुलियों को मिलाकर तथा प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुली को झुकाकर अंगुष्ठ के ऊपर स्थापित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे माला - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा पूजाकर्म हेतु उपयोगी है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org