Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 432
________________ 388 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि १२. यथाजात - मुद्रा वन्दनक-क्रिया की स्थिति के सदृश, अर्थात् दोनों हाथों को शिप्राकार करके एवं मिलाकर ललाट के ऊपर स्थापित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे यथाजात - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा कर्मों का क्षय करने वाली है । १३. आरात्रिक- मुद्रा दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर पाँच स्थानों पर शिखा के समान स्थापित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे आरात्रिक- मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा आदर-सत्कार प्रदान करने वाली है । आचारदिनकर (खण्ड- ४ ) - १४. वीर - मुद्रा सुखासन में बैठकर दोनों हाथों को वरदाकार में रखने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे वीर - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा सर्वरक्षाकारी है १५. विनीत - मुद्रा - सिर झुकाकर दोनों हाथ जोड़ने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे विनीत - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा पूजा हेतु उपयोगी है। १६. प्रार्थना - मुद्रा - दोनों हाथों को फैलाकर मिलाने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे प्रार्थना - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा वांछितफल प्रदायिनी है । १७. परशु - मुद्रा - दाएँ हाथ को थोड़ा आकुंचित करके तथा बाएँ हाथ को फैलाकर भूमि की तरफ करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे परशुमुद्रा कहते हैं । १८. छत्र - मुद्रा बाएँ हाथ की पाँचों अंगुलियों को कली का आकार देकर उसे फैले हुए दाएँ हाथ पर रखने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे छत्र - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा प्रभुता को देने वाली है। १६. प्रियंकरी - मुद्रा दोनों भुजाओं का वज्राकार बनाकर दोनों कंधों पर हाथ स्थापित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे प्रियंकारी - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा स्तम्भनकारी है । Jain Education International - २०. गणधर - मुद्रा पद्मासन में बैठकर बाएँ हाथ को उत्संग में स्थापित करके दाएँ हाथ को जाप की मुद्रा में हृदय पर रखने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे गणधर - मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा लब्धि प्रदान करने वाली है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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