Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 430
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) _386 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि जीर्णोद्धार एवं नूतन चैत्य बनवाए, महाध्वजारोपण करे, उदार भाव से अन्न का दान करे, महासंघ की पूजा करे। इन्द्रपद, मालारोपण इत्यादि कर्म अन्य श्रावकों द्वारा किए जाते हैं। इन्द्र (राजा), महाधर (भाण्डारिक), मालाधर, पाणिग्राहादि भी महापूजा, ध्वजारोपण एवं संघपूजा करें। तीर्थ में ये संघपति के कार्य हैं। पुनः उसी प्रकार वापस घर आए। परमात्मा के समक्ष भोजन का थाल रखे, संघवात्सल्य एवं संघपूजा करे। पदारोपण-अधिकार में संघपति-पदारोपण की यह विधि इस प्रकार बताई गई है। मुद्रा-विचार - प्रतिष्ठा, पूजन एवं पदारोपण की समस्त विधियों में, ध्यान में, मंत्रोपासना में, वासचूर्ण को अभिमंत्रित करने में, सभी नन्दियों में मुद्राओं का दर्शन कराना परमावश्यक है, अतः प्रसंगवशात् उनका संग्रह करके यहाँ उनकी व्याख्या करते हैं - १. परमेष्ठी-मुद्रा - सीधे खड़े हुए दोनों हाथों का वेणीबंध करके (एक-दूसरे से संयोजित कर) दोनों अंगूठों से दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों को तथा दोनों तर्जनी अंगुलियों द्वारा दोनों मध्यमा अंगुलियों को पकड़कर दोनों अनामिका अंगुलियों को मिलाकर सीधी खड़ी करें - इसे परमेष्ठी-मुद्रा कहते हैं। २. मुद्गर-मुद्रा - दोनों हाथों को एक-दूसरे से उल्टा मिलाकर अंगुलियों का वेणीबंध करने तथा दोनों हाथों को स्वयं की तरफ सीधा करने से मुद्गर-मुद्रा निष्पन्न होती है। इसका प्रयोग विघ्नविघातनार्थ किया जाता है। ३. वज्रमुद्रा - बाएँ हाथ के ऊपर दायाँ हाथ रखकर कनिष्ठिका अंगुलियों एवं अंगूठों से हाथ के कांडों को वेष्टित करके बाकी की अंगुलियों को विस्फारित छोड़ देने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे वज्रमुद्रा कहते हैं। इसका प्रयोग दुष्टरक्षा के निमित्त किया जाता है। ४. गरुड़मुद्रा - स्वयं के सम्मुख दायां हाथ खड़ा करके उसकी कनिष्ठिका अंगुली से बाएं हाथ की कनिष्ठिका अंगुली को पकड़कर दोनों हाथों को नीचे की तरफ उल्टा कर देने से जो मुद्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468