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आचारदिनकर (खण्ड-४) 287 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि १३. चान्द्रायण-तप विधि -
अब चान्द्रायण-तप की विधि बताते हैं - "चान्द्रायणं च द्विविधं प्रथमं यवमध्यकम् ।
द्वितीयं वज्रमध्यं तु तपोश्चर्या विधीयते।।।। यवमध्ये प्रतिपदं शुक्लामारभ्य वृद्धितः।
एकैकयोग्रासदत्त्यो राकां यावत्समानयेत् ।।२।। ततः कृष्ण प्रतिपदमारभ्यैकैक हानितः।।
अमावस्यां तदेकत्वे यवमध्यं च पूर्यते ।।३।। वज्रमध्ये कृष्ण पक्षमारभ्य प्रतिपत्तिथि ।
कार्या पंचदशग्रासदत्तिभ्यां हानिरेकतः ।।४।। अमावास्याश्च परतो ग्रासदत्तिं विवर्धयेत् ।
यावत्पंचदशैव स्युः पूर्णमास्यां च मासतः।।५।। एवं मासद्वयेन् स्यात्त्पूर्णं च यववज्रकम्।
चांद्रायणं यतेर्दत्तेः संख्या ग्रासस्य देहिनाम् ।।६।।" इस तप में चंद्रमा की तरह हानि एवं वृद्धि होने के कारण इस तप को चांद्रायण-तप कहते हैं।
यह तप दो प्रकार का है -
१. यव की तरह जिसका मध्यभाग स्थूल हो तथा आदि और अंत का भाग पतला हो, वह यवमध्य कहलाता है तथा २. वज्र की तरह जो बीच में पतला हो तथा आदि और अंत में स्थूल हो, वह वज्रमध्य कहलाता है। यहाँ स्थूलता और हीनता के कारण दत्ति या ग्रास की बहुलता या अल्पता जानना चाहिए। पहला यवमध्य चान्द्रायण-तप इस प्रकार से करे -
यह तप शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को प्रारम्भ करे। प्रतिपदा के दिन एक, द्वितीया के दिन दो - इस प्रकार मुनि एक-एक दत्ति तथा श्रावक एक-एक कवल (ग्रास) की वृद्धि कर पूर्णिमा के दिन पन्द्रह दत्ति, अथवा पन्द्रह कवल (ग्रास) ले। तत्पश्चात् कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को पंद्रह, द्वितीया को चौदह - इस तरह एक-एक दत्ति, अथवा कवल (ग्रास) कम करता हुआ अमावस्या को एक दत्ति या एक कवल ग्रहण करे - यह यवमध्य चांद्रायण-तप कहलाता है।
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