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आचारदिनकर (खण्ड-४) 326 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ४८. लघुपंचमी-तप -
अब लघुपंचमी-तप की विधि बताते हैं - "लघुपंचम्यां द्वयशनादि पंचमासोत्तर तपः कृत्वा।
तत्पंचविधं समाप्तौ समाप्यते मांसपंचविंशत्या।१।।" पंचमी के दिन किए जाने वाले तप को पंचमी-तप कहते हैं। यह तप श्रावण, भाद्रपद, आश्विन एवं कार्तिक, पौष एवं चैत्र - इन छ: महीनों की सुदी (शुक्ल पक्ष) पंचमी से शुरू करे। फिर प्रत्येक शुक्ल पंचमी को निम्न उल्लेखानुसार तप करे। पुरुष एवं स्त्री जिनचैत्य में जाकर उत्तम जाति के विविध पुष्पों द्वारा परमात्मा की पूजा करे। उसके बाद पुस्तकरूपी ज्ञान की स्थापना कर विधिपूर्वक उसकी पुष्प आदि से पूजा करे। उसके आगे अखण्ड अक्षतों से स्वस्तिक बनाए तथा उसके ऊपर घृतपूर्ण पाँच बत्ती वाला देदीप्यमान दीपक रखे। उसके पास फल, नैवेद्य आदि चढ़ाए। तत्पश्चात् स्वयं के मस्तक पर गंध, अक्षत और चन्दन लगाए तथा गुरु के पास जाकर । शुक्लपंचमी-तप प्रारम्भ करे। प्रथम पाँच माह की शुक्ल पंचमी को बियासना एवं द्वितीय पाँच मास की शुक्ल पंचमी को एकासन करे। इसके बाद तीसरे पाँच मासों की शुक्ल पंचमी को नीवि करे, उसके बाद चौथे एवं पाँचवें पाँच मासों की शुक्ल पंचमी को क्रमशः आयम्बिल एवं उपवास करे - इस प्रकार पच्चीस माह में यह तप पूरा होता है। किसी गच्छ में पच्चीस माह तक शुक्ल पंचमी को जिस तप से आरम्भ किया हो, वही तप करने की पद्धति है, अर्थात् बियासन, एकासन, नीवि, आयम्बिल या उपवास में से किसी भी तप से इस तप को प्रारम्भ किया हो, तो अन्त तक (२५ मास तक) वही तप करने का विधान है।
इस तप के उद्यापन में जिनप्रतिमा की बृहत्स्नात्रविधि से पूजा करे। पाँच-पाँच विविध प्रकार के पकवान, फल एवं मुद्राएँ चढ़ाए। पुस्तक के आगे, कवली, डोरी, रुमाल, पींछी, पाटी, नवकारवाली, वासक्षेप का बटुआ, कलम, दवात, मुखवस्त्रिका, छुरी, कैंची, नखकर्तरी, दण्ड, कम्बली, ठवणी, डोरी, ओघे का पाटा, छबड़ी, दीपक, अंगलूहणा, चंदन, वासक्षेप, चामर, आदि ये सभी वस्तुएँ
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